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________________ ( १६३ ) आक्षेप ( ग ) – विधुर और विधवाओं का अगर एकसा इलाज हो तो दोनों को शास्त्रकारों ने समान आज्ञा क्याँ नहीं दी ? (विद्यानन्द ) समाधान - जैनधर्म ने दोनों को समान आशा दी है । इस विषय में पहिले विस्तारसे लिखा जा चुका है। देखा '७ घ' । आक्षेप (घ ) - स्त्रीपर्याय पुरुषपर्याय से निद्य है । इस लिये जो विधवाएँ पुरुषों के समान पुनर्विवाह का अधिकार चाहती हैं, वे पहिले पुरुष बनने के कार्य संग्रमात्रिक पालकर पुरुष बनलें। बाद में पुरुषों के समान पुनर्विवाह की अधिकारी बने । (विद्यानन्द ) समाधान - अगर यह कहा जाय कि "भारतवासी निंद्य हैं इसलिये अगर वे स्वराज्य चाहते है तो अंग्रेज़ों की निस्वार्थ सेवा करके पुण्य कमायें और मरकर अंग्रेज़ों के घर जन्म लंबे" तो यह जैसी मुर्खता कहलायगी इसी तरह की मुर्खता प्रक्षेपक के वक्तव्य में हैं। वर्तमान विधवाएं अगर मर के पुरुष बन जायेंगी तो क्या परलोक में विधवा बनने के लिये पडित लोग अवतार लेंगे ? क्या फिर विधवाएँ न रहेंगी ? क्या इससे विधवाओं की समस्या हल हो जायेगी ? क्या भ्रूणहत्याएँ न होगी ? क्या विपत्तिग्रस्त लोगों की विपत्ति दूर करने का यही उपाय है कि पारलौकिक सम्पत्ति की झूठी श्राशा से उन्हें मरने दिया जाय ? खैर, जिन विधवाओं में ब्रह्म चर्य के परिणाम हैं वे तो पुण्योपार्जन करेंगी परन्तु जो विध वाएँ सदा मानसिक सौर शारीरिक व्यभिचार करती रहती हैं, भोगों के अभाव में दिनगत गंती हैं और हाय हाय करती हैं, वे क्या पुरायोपार्जन करेंगी ? दुःखी जीवन व्यतीत करने से ही क्या पुण्यबन्ध हो जाता है ? यदि हाँ, तब सानवें नरक के नारकी को सब से बड़ा तपस्वी कहना चाहिये । यदि
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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