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________________ ( १४७) आक्षेप (झ)-विवाह का चारित्र मोहनीय के उदय के साथ न तो अन्वय है न व्यतिरेक । समाधान-यह वाक्य लिख कर आक्षेपक ने अकलङ्काचार्य का विरोध तो किया ही है साथ ही न्यायशास्त्र में प्रसा. धारण अज्ञानता का परिचय भी दिया है । श्रापक अन्वय व्यतिरेक का स्वरूप ही नहीं समझता । कार्य कारण का जहाँ अविनाभाव बतलाया जाता है वहाँ कारण के सद्भाव में कार्य का सद्भाव नहीं बताया जाता किन्तु कार्य के सद्भाव में कारण का सद्भाव बतलाया जाना है। कारण के सद्भाव में कार्य का सद्भाव हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। चारित्र माह के उदय ( कारण ) रहने पर विवाह ( कार्य ) हो सकता है और नहीं भी हो सकता। अर्थात् व्यभिचार वगेरह भी हो सकता है । परन्तु विवाह ( कार्य ) के सद्भाव में चारित्र माह का उदय (कारण) ता अनिवार्य है। अगर वह न हो तो विवाह नहीं हो सकता । यह व्यतिरेक भी म्पट है। चारित्रमाह के उदय का फल संभोग क्रिया का ज्ञान नहीं है । शान तो शानावरण के क्षयोपशम का फल है । चारित्र माहोदय तो कामलालसा पैदा करता है। अगर उसे परिमित करने के निमित्त मिल जाते है तो विवाह हा जाता है, अन्यथा व्यभिचार होता है। प्राक्ष पक ने यहाँ अपनी आदत के अनु. सार अपनी तरफ से 'ही' जोड़ दिया है। अर्थात् 'चारित्र मोह का उदय ही' कहकर खराडन किया है, जबकि हमने 'ही' का प्रयोग ही नहीं किया है । जब चारित्रमाह के उदय के साथ सद्वंद्य की बात भी कही है तब 'ही' शब्द को ज़बर्दस्ती घुसेड़ना बड़ी भारी धूर्तता है। अकलदेव ने सवेद्य और चारित्रमोह लिखा है। प्राक्ष पक ने उसका अभिप्राय निकाला है 'उपभोगान्तराय'।
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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