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( १३३ ) कि अमृतचन्द्र प्राचार्य और आशाधरजी ने कहा है, जो कि हम लिख चुके है ।
स्त्रीपुरुष के अधिकार भेद के विषय में कहा जा चुका है। विधवाविवाह को जहर आदि कहना युक्ति से जीतने पर गालियों पर प्राजाना है।
आक्षेप (द)-यदि विवाह से ही कामलालसा की निवृत्ति मानली जाय तो ब्रह्मचर्य आदि वनों की क्या श्रावश्यकता है, क्योंकि ब्रह्मचर्य का भी ना काम की निवृत्ति के लिये उपदेश है?
ममाधान-अभी तक श्राप कामलालमा की निवृत्ति को वुग समझते थे। इसके समर्थकों को आपने पागल, मोही, नित्यनिगांदिया (निगोदिया), अक्षानी, रट्ट नाते श्रादि लिख मारा था । यहाँ आपने इस ब्रह्मचर्य का साध्य बना दिया है।
बैंग, कुछ ना ठिकाने पर पाए। अब इतना और समझ लीजिये कि विवाह, ब्रह्मचर्य अणुवत का मुख्य साधक है। इसलिये विवाह और ब्रह्मचर्यत्रत के लक्ष्य में कोई विरोध नहीं हे । ब्रह्मचर्यव्रत अन्तरङ्गसाधक है, विवाह वाह्यलाधक, इस लिये कोई निरर्थक नही हैं। एक साध्य के अनेक साधक हाते हे।
प्राक्षप (ध)-जिनकी कामलालसा प्रबल है, वे बिना उपदेश क ही स्वयमेव इस पथ को पकड़ लेती हैं। फिर आप क्यों अपना अहिन करते हैं ?
समाधान-जिनकी कामलालसा प्रबल है, वे अभी स्वय. मेव विधवाविवाह के मार्ग को नहीं पकड़ती, वे व्यभिचार के मार्ग को पकड़ती है । उसको निवृत्ति के लिये विधवाविवाह के आन्दोलन की ज़रूरत है। विवाह न किया जाये तो कुमारियाँ भी अपना मार्ग ढूंढ लेंगो, लेकिन वह व्यभिचार का मार्ग होगा । इसलिये लोग उनका विवाह कर देने हैं । फल यह