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( ११२ ) विवाह को बहुपतित्व की प्रथा न समझे । एक साथ अनेक पतियों का रखना बहुपतित्व है । एक की मृत्यु हो जाने पर दुसग पति रखना एक पतित्व ही है क्योंकि इसमें एक साथ बहुपनि नहीं होते।
पाठक इस लम्ब विवंचन से ऊब तो गये होंगे, परन्तु इसमें "विधवाविवाह की आज्ञा कोन दे ?". "पुराणों में बहु. विवाह का उल्लेख पाया जाता है" आदि प्राक्षेपों का पूरा समा. धान हो जाता है । शास्त्रोक कथन की अनकान्तता मालुम हो जाती है। साथ ही ब्रह्मचर्यायुवत का रहस्य मालुम हो जाता है । आपकने पक्षपात के इल्ज़ाम को पशुता और दमनीय अविचारता लिखा है। खेर, जैनधर्म तो इतना उदार हे कि उसपर बिना इल्ज़ाम लगाये विधवाविवाह का समर्थन हो जाता है । परन्तु जो लोग जैनशास्त्रों को विधवाविवाह का विगंधी समझते है या जैनशास्त्रों के नाम पर बने हुए. जैन धर्म के विरुद्ध कुछ ग्रन्थों को जैनशास्त्र समझते है उनसं हम दो दो बातें कर लेना चाहते हैं। ये दो बातें हम अपनी तरफ स नहीं, किन्तु उनके वकील की हैसियत से कहते है जिनको प्राक्षपकने पशु बतलाया है।
प्राक्षेपक का कहना है कि "न्याय और सिद्धान्तकी रच. नाएँ गुरु.परम्पग से हैं". परन्तु उनमें स्वकल्पित विचारों का सम्मिश्रण नहीं हुआ, यह नहीं कहा जा सकता । माणिक्यनंदि
आदि प्राचार्याने प्रमाण को अपूर्वाग्राही माना हे ओर धारावाहिक ज्ञानको अप्रमाण । परन्तु आचार्य विद्यानन्दीने गृहीत. मगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यात, तत्र लोके न शास्त्रेप विज. हाति प्रमाणताम्-कहकर धागवाहिक को अप्रमाण नहीं माना है । ऐसा ही अकल देवने लिखा है ( देखो श्लोकवार्तिक. लघीयस्त्रय, या न्यायप्रदीप ) धर्मशास्त्रमें तो और भी ज्यादा