SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१००) फिर कोम्बिक अधिकार न बनाना चाहिये। अगर चाणक्यनीति के उस वाक्य का यह अर्थ न होना ना चाणक्य के अन्य वाक्यों म ममन्वय ही न हो पाता । प्राक्षेप (ब)-प्रापने कहा कि 'अगर हम ग्खूब म्वादिष्ट भोजन करें और दमग को एक टुकड़ा भी न खाने दें तो उन्हें म्वाद के लिय नही नो क्षुधाशांति के लिये चोरी करनी ही पड़ेगी। और इमका पाप हमें भी लगेगा । इसी तरह भ्रण हत्या का पाप विधवाविवाह के विगधियों को लगता है परन्तु कीन किम्म को क्या नहीं खाने देना? कानिकयानु प्रक्षा में लिखा है कि 'उपकार तथा अपकार शुभाशुभ कर्म ही करे है। (विद्यानन्द) ममाधान-उपकार अपकार ना कर्म करते है परन्तु वों का उदय नाकर्मों के बिना नहीं थाना । बाह्यनिमित्तों को नाकर्म कहते है (दखा माम्मट सार कर्मकागड )। अशुभ कमो क नोकर्म बनना पाप है। पशु तो अपने कमोदय म माग जाता है परन्तु कर्मादय के नोकर्म कमाई का पाप का बन्ध होता है या नहीं ? विधवा को पापकर्म के उदय म पनि नहीं मिलता, परन्तु जो लाग पनि नहीं मिलने देत व ना उमी कमाई के समान उस पाप कर्म के नाकर्म है। यदि काकिगानुप्रेक्षा का ऐसा ही उपयोग किया जाय नो पण्डित लोग गुट्ट बाँध कर डाका डालना, स्त्रिया के माथ बलात्कार करना श्रादि का श्रीगणेश करदे और जब काई पछे कि एमा क्या करते हो ? तो कह दें-"हमने क्या किया ? उपकार तथा अपकार नां शुभाशुभ कर्म ही करे हे'। इस तरह से राजदण्ड आदि की भी काई ज़रूरत नहीं रहेगी क्योंकि "उपकार अपकार शुभाशुभ कर्म ही करे है" । ग्वैर माहिब ऐसा ही मही। नच ता जिस विधवा का कर्मोदय आयगा उसका पुनर्विवाह
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy