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( ५ ) सुध स्त्रियों के लिये ही है ? मर्दो के लिये नहीं ? फिर जैनधर्म ज़बर्दस्ती त्याग कराने की बात कहाँ कहता है ? उसका तो कहना है कि "ज्यों ज्यों उपशमत कषाया। त्यो त्यो तिन त्याग बताया।"
आक्षेप (च)-पण्डितों के कठोरतापूर्ण शासन और पक्षपातपूर्ण उपदेशों के कारण स्त्रियाँ भ्रणहत्या नहीं करती, परन्तु जो उनके उपदेश से निकल भागती हैं वे व्यभिचारि. णियाँ ही यह पाप करती हैं।
ममाधान-इस बात के निर्णय के लिये एक दृष्टान्त रखना चाहिये । चार विधवाएँ हैं । दो सुधारक और दो स्थितिपालक । एक सुधारक और एक स्थितिपालक विधवा तो पूर्ण ब्रह्मचर्य पाल सकती है और बाकी की एक एक नहीं पाल सकती । पहिली से मुधारक कहते हैं कि 'बहिन! अगर तुम पवित्रता के साथ ब्रह्मचर्य पालन करने को तैयार हो तो एक ब्रह्मचारीके समान हम आपकी पूजा करते हैं और अगर तुम नहीं पाल सकती हो तो आज्ञा दो कि हम अापके विवाह का आयोजन कर दें।" वह बहिन कहती है कि अभी में ब्रह्म चय पालन कर सकती हूँ, इसलिए अपना पुनर्विवाह नहीं चाहती। जब मैं अपने मनको वश में न रख सकेगी तो पुनविवाह का विचार प्रगट कर दूंगी। दूसरी बहिनसे यही बात कही जाती है तो वह विवाह के लिये तैयार हो जाती है और उसका विवाह कर दिया जाता है। उसके विवाह को पण्डित लोग ठीक नहीं समझते-सुधारक ठीक समझते है । परन्तु जब वह बहिन विवाह करा लेती है तो उसे संतान को छिपाने की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती जिससे वह भ्रणहत्या करें । इस तरह सुधारक पक्ष में नो दोनों तरह की विधवाओं का पूर्ण निर्वाह है। अब स्थितिपालको में देखिये ! उनका कहना