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है। सोमदेव प्राचार्य के मन से वेश्यामेवी भी ब्रह्मचर्याणुव्रती हो सकता है * परन्तु परस्त्री सेवी नहीं हो सकता। इससे वश्या मेवन हलके दर्जे का पाप सिद्ध होता है। किसी स्त्री को विवाह के बिना ही पत्नी बना लेना वेश्यासेवन से भी कन पाप है, क्योंकि वेश्यासेवी की अपेक्षा रखैल स्त्री वाले की इच्छाएँ अधिक मीमित हुई है। विधवा विवाह इन तीन श्रेणियों में से किसी भी श्रेणी में नहीं पाता, क्योंकि ये तीनों विवाह में कोई सम्बन्ध नहीं रखते।
कहा जा मकना है कि विधवा विवाह परस्त्री सेवन में ही अन्तर्गत है, क्योंकि विधवा परस्त्री है । इसके लिये हमें यह समझ लेना चाहिये कि परस्त्री किसे कहते हैं और विवाह क्यों किया जाता है ?
अगर कोई कुमारी, विवाह के पहले ही संभोग करें तो वह पाप कहा जायगा या नहीं ? यदि पाप नहीं है तो विवाह की ज़रूरत ही नहीं रहनी । यदि पाप है तो विवाह हो जाने पर भी पाप कहलाना चाहिये । यदि विवाह हो जाने पर पाप नहीं कहलाता और विवाह के पहिलं पाष कहलाता है तो इससे सिद्ध है कि विवाह, व्यभिचार दोष को दूर करने का एक अव्यर्थ साधन है । जो कुमारी श्राज परस्त्री है और जो पुरुष श्राज पर पुरुष है, वे ही विवाह हो जाने पर स्वस्त्री और म्वपुरुष कहलाने लगते हैं । इससे मालूम होता है कि कर्मभूमि में म्वस्त्री और स्वपुरुष जन्म में पैदा नहीं होने, किन्तु बनाये जाते हैं। कुमारी के समान विधवा
* वधूवित्तस्त्रियो मुक्या सर्वान्यत्रऽनजने । मातास्वसा तनूजेति मनिर्बह्म गृहाश्रमे ॥ --यशस्तिलक