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________________ ( ६७ ) भी वह पूर्व प्रतिक्षा पर दृढ़ रहे तो उममें कामाधिक्य ( काम की अधिकता ) नहीं कहा जा सकता । और दूसरी स्त्री जो मधवा ही बनी रही है और प्रतिदिन या दो दो चार चार दिन में काम सेवन करती है उसमें कामाधिक्य है। काम की अधिकता कामाधिक्य है, न कि काम के साधनों का परिवर्तन। इसलिये पति या पत्नीक बदल जाने से कामाधिक्य नहीं कहा जा सकता। लोकलज्जा के नामपर अन्याय या अत्याचार सहना पाप है । धर्मविरुद्ध कार्य में लोकलजा से डरना चाहिये, लेकिन आँख मूंदकर लोक की बातों को धर्मसंगत मानना मूर्खता है। जो काम यहाँ लोकलजा का कारण है वही अन्यत्र लोकलजा का कारण नहीं है। कहीं कहीं तो धर्मानुकूल काम भी लोक. लजा के कारण होजाते हैं जैसे, अन्तर्जातीयविवाह, चारसाँक में विवाह. स्त्रियों के द्वारा भगवान की पूजा, प्रक्षाल, शूद्रोंको धर्मोपदेश देना पर्दा न करना, घस्त्राभूषणों में परिवर्तन करना, निर्भीकता से बोलना, स्त्रीशिक्षा, अत्याचारी शासक या पंच के विरुद्ध बोलना श्रादि । किस किस बात में लोकलजा का विचार किया जायगा ? ज़माना तो ऐमा गुज़र चुका है कि जैनधर्म धारण करने से ही लोकनिन्दा होती थी, दिगम्बर वेष धारण करने से निन्दा होती थी । तो क्या उसे छोड़ देना चाहिये ? और श्राजकल भी ऐसे लोग पड़े हुए है--जिनमें आक्षेपक का भी समावेश है-जो कि भगवान महावीर की जयन्ती मानना भी निन्दनीय समझते हैं । जब ऐसे धर्मानुकूल कार्यों की निन्दा करने वाले मौजूद हैं तब लोकनिन्दा की कहाँ तक पर्वाह की जाय ? इसके अतिरिक्त धर्मविरुद्ध कार्य भी लोक-प्रशमा के कारण हो जाते हैं या लोक-निन्दा के कारण नहीं होते। जैसे-सीथियन जाति में प्रत्येक पुरुष का प्रत्येक
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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