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उसको उपदेश देना व्यर्थ है। जैसे जिसने सिह नहीं देखा वह करता शूरता वाले व्यक्ति को ही सिंह समझ जाता है, उसी प्रकार जो निश्चय ( वास्तविक) का नहीं जानता वह व्यवहार ( अवास्तविक ) को ही निश्चय समझ जाता है । जो व्यवहार
ओर निश्चय इन दोनों को समझकर मध्यस्थ होता है, वही उपदेश का पूर्ण फल प्राप्त करता है।
मतलब यह कि व्यवहार चारित्र, वास्तव में चारित्र नहीं है-वह ता चारित्र के प्राप्त करने का एक जरिया हे, जो कि अल्पबुद्धि वालों को समझाने के लिये कहा गया है। हाँ, यहाँ पर प्राचार्य यह भी कहते है कि मनुष्य को एकान्तवादी न बनना चाहिये। यही कारण है कि हमने अनेकान्त रूप से विवाह का विवेचन किया है । अर्थात् वास्तविकता की दृष्टि से । निश्चयनय मे) विवाह धर्म नहीं है, क्योंकि वह प्रवृत्तिरूप है और उपचार से धर्म है । परन्तु यह उपचरित धार्मिकता मिर्फ कुमारी विवाह में ही नहीं है विधवाविवाह में भी है । क्योंकि दोनों में परस्त्री अर्थात् अविवाहित स्त्री से निवृत्ति पाई जाती है । पाठक देखेंगे कि हमाग विवंचन कितना शास्त्रसम्मत और अनेकाल से पूर्ण है, जबकि आक्षेपक बिल्कुल व्यवहारैकान्तवादी बन गया है। इसीलिये "प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नहीं हैं" निश्चयनय के इम कथन को यह मर्वथा (?) असगत समझता है ?
हमने विवाह को उपचग्नि धर्म सिद्ध करने के लिये कथंचिनिवृत्यात्मक सिद्ध किया था। जिस प्रकार किसी मनुप्य को शेर कहने से वह शेर नहीं होजाता, किन्तु शेर के कुछ गुणों की कुछ समानता उसमें मानो जाती है, उसी प्रकार व्यवहार चारित्र, चारित्र न होने पर भी उनमें चारित्रको कुछ समानता पायी जाती है । चारित्र में तो शुभ और अशुभ दोनों