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ममाधान-हमने सम्यक्त्वी को पञ्चपापी पसेवो नहीं लिखा है,पाँच पाप करने वाल लिखा है। भले ही वह उपभोग हो । उसकी मचिपूर्वक प्रवृत्तिता पाप में ही क्या. पुराय में भी नहीं हानी । वह नो दोनों को हेय और शुद्ध परिणति को उपादेय मानता है। उसकी रुचि न नो कुमारी-विवाह में है न विधवा. विवाह में, किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के उदय से वह अरुचिपूर्वक जैम कुमार्गविवाह करता है उसा प्रकार विधवाविवाह भी करता है। उसकी अरुचि विधवाविवाह को गेक और कुमारी विवाह का न रोके, यह केस हा सकता है ? पाक्षेपक का कहना है कि "पाप तो मदा मर्वथा घार पापबन्धका कारण है", नब तो सम्यग्दृष्टि को भो घोर पापबन्ध का कारण होगा, क्योंकि वह भी पापोपमांगी है। लेकिन आक्षेपक सम्यग्दृष्टिको घोर पाप बन्ध नहीं मानता । तब उस का 'सदा सर्वथा' शब्द प्रापही जागिडत हा जाता है। अमृत. चन्द्र का हवाला देकर तो श्राक्ष पक ने बिलकुल ऊटपटाँग बका है, जिस मे विधवाविवाह विरोध का काई ताल्लक नहीं। मम्यक्त्व तो बन्ध का कारण हे ही नहीं, किन्तु उनके साथ रहने वाली कपाय बन्ध का कारण जरूर है। यही कारण है कि अविरत सम्यग्दृष्टि ७७ प्रकृतियों का बन्ध करता है जिन में बहुभाग पाप प्रकृतियों का है । सम्यक्त्व और म्वरूपाचरगा होने से उस के १६+ २५४१ प्रकृतियों का बन्ध रुकता है। सम्यग्दृष्टि जीव अगर विधवाविवाह करे तो उसके इन ४१ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होगा। हां, बाकी प्रकृतियोका बन्धहो सकेगा । सो वह तो कुमारी विवाह करने पर भी हो सकेगा और विवाह न करने पर भी हो सकेगा । हमाग कहना तो यही है कि जब सम्यग्दृष्टि जीव-अरुचि पूर्वक ही सही