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________________ ( ३३ ) नाहं सुलोचनार्थ्यामि मत्सरी मच्छरैग्यम् । परासुरधुनैवस्यात्कि मे विधवयातया ॥ मुझे सुलोचना कुछ मतलब नहीं, यह घमण्डी जयकुमार मेरे बाणों से मर जाय । मुझे उस विधवा से क्या लेना है ? ↓ बस, अत्याचारी श्रर्ककीर्तिकी यह बात ही श्रीलालजी के लिए श्रागम बन बैठी है । आक्षेपक प्रकरण को छिपा कर इस प्रकार समाज को धोखा देना चाहता है । दुर्मण ने जब सुलोचना को, कन्यारत्न कहकर प्रशन्सा की, तब श्रकीर्ति से नहीं कहा गया कि मैं उस विधवा का क्या करूँगा ? उस समय तो मुँह में पानी श्रा गया था। अनवद्यमति की फट कार से कहने लगा कि मैं विधवा सुलोचना को ग्रहण न करूँगा - मैं तो सिर्फ बदला लेना चाहता हूँ । अर्ककीर्ति की यह कांगे चाल थी तथा उससे यह नहीं मालूम होता कि वह विधवा होने के कारण उसको ग्रहण नहीं करना चाहता था । उसने तो परस्त्रीहरण के अन्याय से निर्लिप्त रहने की सफ़ाई दी थी । प्रकरण को देखकर कोई भी समझदार कह सकता है कि इससे विधवाविवाह का खण्डन नहीं होता । नीतिवाक्यामृत के वाक्य से विधवाविवाह का विरोध करना बड़ी भारी धोखेबाज़ी है। नीतिवाक्यामृत उन्हीं सोमदेव का बनाया हुआ है जो विधवाविवाह का अनुमोदन करते हैं । तब सोमदेव के वाक्य से विधवाविवाह का विरोध कैस हो सकता है ? जिस वाक्य से विधवाविवाह का विरोध किया जाना है उसे श्रक्षेपक ने समझा ही नहीं है, या समझ कर छिपाया है। वह वाक्य यह है- सकृत्परिणयन व्यवहाराः सच्छूद्राः । अर्थात् अच्छे शूद्र वे हैं जो एक ही बार विवाह करते
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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