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जीव और उसकी विविध अवस्थाएं / 73
यह उसका व्यवहारिक स्वरूप है। शुद्ध स्वरूप में तो वह केवल दर्शन और केवल ज्ञानमय है । '
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सांख्य तथा नैयायिक आत्मा को उपयोग (ज्ञान) रहित मानते हैं। नैयायिकों का कहना है कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है। वह बाहर से आता है। इस पर जैन दार्शनिक कहते हैं कि आत्मा हमेशा ज्ञानवान ही बना रहता है। ज्ञान और दर्शन जीव का स्वभाव है । कोई भी जीव उसके बिना नहीं रह सकता। जो जीव है, वह ज्ञानवान है। तथा जो ज्ञानवान है वह जीव है। जैसे अग्नि अपने उष्ण गुण को छोड़कर नहीं रह सकती वैसे ही जीव अपने ज्ञान गुण से पृथक नहीं रह पाता । एकेंद्रियादि वनस्पति से लेकर मुक्तात्माओं तक यह ज्ञान हीनाधिक रूप से पाया जाता है। ज्ञान का पूर्ण विकसित रूप सिद्धात्माओं में पाया जाता है। यदि हम ज्ञान को आगंतुक मानते हैं तो फिर सभी पदार्थों में इस आगंतुक ज्ञान के संयोग से चेतनत्व मानना चाहिए ।
"यहां पर ज्ञातव्य है कि प्रत्येक वस्तु के दो रूप होते हैं—स्वाभाविक और वैभाविक । स्वाभाविक रूप में पर- निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती, जबकि वैभाविक रूप में पर-निमित्त की अपेक्षा बनी रहती है । स्वाभाविक रूप के लिए परमार्थ, निश्चय, वास्तविक आदि नाम दिए जाते हैं तथा वैभाविक रूप को अपरमार्थ, व्यवहार, अशुद्ध आदि शब्दों द्वारा व्यक्त किया गया है । आत्मा का वर्णन भी इन्हीं दोनों दृष्टियों से जैनागमों में किया गया है। " अमूर्त-अमूर्तिक विशेषण से कुमारिल भट्ट के मत का परिहार किया गया है जो उसे मूर्तिक मानते हैं । उसी तरह चार्वाक भी जीव को मूर्तिक पिंड मानते हैं। शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में पुद्गल के गुण, रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं होते इसलिए यह अमूर्तिक है पर संसार अवस्था में वह अनादि कर्मों से बद्ध होने के कारण रूपादिवान होकर मूर्तिक होता है । यह मूर्तत्व गुण चेतना का विकार है और विकार स्थायी रहता नहीं। अतः वह अशुद्ध है । इस प्रकार निश्चय से जीवों को अमूर्त मानकर भी व्यवहार से जीव को मूर्तिक माना गया है। 4
कर्त्ता—सांख्य दर्शन जीव को कर्त्ता नहीं स्वीकारता । उसकी दृष्टि में प्रकृति ही सारे कार्य करती है । वही सुख-दुःखादि का कर्त्ता है। पुरुष (आत्मा) तो साक्षी मात्र है। जैन दर्शन का कहना है कि जीव अपने शुभाशुभ परिणामों का कर्त्ता है। वह निश्चयनय से अपने भावों का तथा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्त्ता है । कर्त्ता कोई और हो, तथा भोक्ता कोई और, ऐसा हो ही नहीं सकता । जब पुरुष सर्वथा निष्क्रिय कूठस्थ और शुद्ध है तो फिर मोक्ष की कल्पना ही व्यर्थ है, क्योंकि मोक्ष तो बंधन पूर्वक ही होता है। '
भोक्ता - जिस तरह आत्मा कर्त्ता है उसी तरह वह अपने परिणामों का भोक्ता भी है। जो जैसा करता है वो वैसा पाता है; जैसी करनी वैसी भरनी, जैसी लोक-प्रसिद्ध न्याय के
1. प्र. सं. गा. 6
2. द्र. सं. टी. गा. 2
3. द्र. स. टी. 2
4.द्र. सं. गा. 7 5. द्र. सं. टीका गा. 8
6. द्र. स. टी. गा. 9