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42 / जैन धर्म और दर्शन
शिलालेख वहां मिला है, जिसके आधार पर विद्वानों ने चंद्रगुप्त को जैन मुनि होना स्वीकार किया है।
उधर आचार्य स्थूलभद्र (शांति आचार्य) के नेतृत्व में एक संघ उत्तर भारत में ही रुक गया था। दुर्भिक्ष के दुर्दिनों में वे अपनी कठोर चर्या/नियम संयम, आचार-विचार को आगमानुकूल सुरक्षित नहीं रख सके। उनमें अनेक प्रकार का शिथिलाचार प्रविष्ट हो गया। परिणामतः वस्त्र, पात्र, आवरण, दंड आदि भी उनसे जुड़ गए। इस प्रकार समय बीतने पर जब सुभिक्ष हो गया तो स्थूलभद्र आचार्य ने उनसे कहा कि “अपने कुत्सित आचरण को छोड़कर अपनी निंदा गर्दा पूर्वक फिर से मुनियों का श्रेष्ठ आचरण ग्रहण कर लो।", किंतु बहुत प्रयास करने के उपरांत भी वे बढ़ते हुए शिथिलाचार को नहीं रोक सके और इसी समय से जैन संघ दो भागों में बंटना प्रारंभ हो गया। पहला संघ मूल आगम के अनुसार आचरण करने वाला था, वह मूल संघ कहलाया तथा दूसरा संघ शिथिलाचारी साधुओं का था,जो आगे चलकर ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी में श्वेतांबर मत के जनक बने ।
प्रारंभ में शिथिलाचारी साधुओं ने अपनी नग्नता को छिपाने के लिए एकमात्र खंड वस्त्र रखा, जिसे वे अपनी कलाई पर लटका लेते थे, इसलिए वे अर्द्धफालक कहलाए। मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त एक शिला पट्ट पर (अयागपट्ट) एक ऐसे ही साधु का चित्र अंकित है,जो अपने हाथ पर वस्त्र लटकाए हुए है तथा शेष शरीर नग्न है। आगे चलकर उस वस्त्र को धागे द्वारा कटि में बांधा जाने लगा। फिर लंगोट का प्रयोग होने लगा। धीरे-धीरे संपूर्ण वस्त्र प्रयोग होने लगा। वस्त्रों के साथ पात्र आदि चौदह उपकरणों का भी विधान होने लगा। वस्त्रधारी साधु श्वेतांबर तथा मूल आगम के अनुसार चर्या करने वाले निर्वस्त्र साधु दिगंबर कहलाए। श्वेतांबराचार्य हरिभद्र सूरि के संबोध प्रकरण से प्रकट होता है कि विक्रम की 7वीं,8वीं शताब्दी तक श्वेतांबर साधु भी एक कटि वस्त्र ही रखते थे तथा जो साधु उस टि वस्त्र का निष्कारण उपयोग करता था वह कुसाधु माना जाता था, कितु आगे चलकर वस्त्र पात्रादि का जोरदार समर्थन किया गया। इस क्रम में सर्वप्रथम जंबू स्वामी के काल से जिन कल्प के विच्छेद का मिथक रचकर उस ओर बढ़ने वाले साधकों को रोका गया तथा प्राचीन आगमों में उल्लिखित अचेल नाग्न्य जैसे स्पष्ट शब्दों के अर्थ में भी परिवर्तन कर डाला गया।
इस प्रकार उक्त वस्त्र ही दिगंबर और श्वेतांबर रूप संघ भेद का सबसे बड़ा कारण बना। इस संदर्भ में प्रसिद्ध श्वेतांबर विद्वान पंडित वेचरदासजी दोशी का निम्न कथन बड़ा
1 श्वेताबर साधु के चौदह उपकरण
1 पत्र 2 पात्र बध 3 पात्र स्थापन 4 पात्र प्रमार्जनिका 5 पटल 6 रजस्वाण 7 गुच्छक 8-9 दो चादरे 10 ऊनी वस्व 11. रजोहरण 12 मुख वस्त्रिका 13 मात्रक 14 चोल पट्टक । यह उपधि औधिक अर्थात् सामान्य मानी गयी। आगे जाकर जो उपकरण बढ़ाये गये वे 'औपग्रहिक' कहलाए। औपग्रहिक उपधि मे सस्तारक, उत्तरपट्टक, दडासन और दड ये खास उल्लेखनीय है। ये सब उपकरण आज के श्वेताबर जैन मुनि रखते है।
-जैन साहित्य का इतिहास, पृ. 474 2 कोवो न कुणइ लोय लज्जई पडिमाई जल्ल मुवणोई। सोवाहणो य हिडई बधइ कडि पट्ट मकज्जे ॥
-संबोध प्रकरण, पृ. 14 अर्थात् क्लीव दुर्बल श्रमण लोच नही करते, प्रतिमा वहन करते समय शर्माते हैं, शरीर पर का मल उतारते हैं. पैरो में जूता पहनकर चलते है और बिना प्रयोजन कटिवस्त्र बाधते है।