________________
सप्तभंगी
सप्तभंगी का अर्थ अनेकांतवाद अथवा स्यावाद का विस्तृत रूप सप्तभंगी में दृष्टिगोचर होता है। अनेकांत सिद्धांत के आधार पर यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रत्येक पदार्थ परस्पर विरोधी अनेक धर्म युगलों
fiत है। तम्न में एक माथ रह तो सकते हैं परंतु उन्हें युगपत व्यक्त नहीं किया जा सक है। इसके युगपत् प्रतिपादन के लिए भाषा में क्रमिकता और सापेक्षता चाहिए। स्याद्वाद पद्धति द्वारा प्रत्येक धर्म का वर्णन उसके प्रतिपक्षी धर्म की अपेक्षा से अस्ति (विधि) नास्ति (निषेध) और अवक्तव्य आदि रूप से सात प्रकार से किया जाता है,क्योंकि प्रत्येक धर्म युगल धर्म सप्तक लिये हुए हैं। वे सात धर्म सात वाक्यों द्वारा कहे जाते हैं। प्रत्येक धर्मों की सप्त प्रकारीय इस वर्णण शैली को सप्तभंगी कहते हैं । सप्तभंगी अर्थात् सात प्रकार के भंग,सात प्रकार के वाक्य विन्यास । सप्तभंगी का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि
प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना सप्तभंगी। अर्थात् प्रश्नानुसार वस्तुगत किसी भी एक धर्म में विधि और निषेध की कल्पना करना सप्तभंगी है। जब वस्तुगत किसी धर्म का विधि निषेधपूर्वक अविरुद्ध कथन करना होता है तब जैन दार्शनिक सप्तभंगी न्याय का अनुसरण करते हैं। सप्तभंगियां निम्न हैं -
स्याद् अस्ति एव-किसी अपेक्षा से है ही। स्याद् नास्ति एव-किसी अपेक्षा से नहीं ही है। स्याद् अस्ति एव स्याद् नास्ति एक किसी अपेक्षा से है ही,किसी अपेक्षा से नहीं ही है। स्याद् अवक्तव्यमेक-किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है।
स्याद् अस्ति एव अवक्तव्य एक-किसी अपेक्षा से है ही और किसी अपेक्षा से अवक्त्तव्य ही है।
स्याद नास्ति एव स्याद् अक्तव्य एव-किसी अपेक्षा से है ही और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है।
स्याद् अस्ति एव स्याद् नास्ति एव, स्याद् अवक्तव्य एव-किसी अपेक्षा से है ही, 1. सप्तभिः प्रकारः वचन विन्यासः सप्तपण्डीति गीयते । स्या. वा. म. का 23 टी 2. त वा 1.6.51 3. सिय अत्वि, पत्थि उहयं अवतव्वं पुणो य तत्तिदयं ।
दव्वं खु सत्त भंगी आदेसवसेण संभवदि ॥ प का गा. 14