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सल्लेखना / 255
अपनी ओर से रक्षा करने की पूरी कोशिश की, किंतु जब रक्षा असंभव हो गयी तो एक कुशल व्यक्ति के नाते बहुमूल्य वस्तुओं का संरक्षण करना ही उसका कर्त्तव्य बनता है । इसी प्रकार रोगादिकों से आक्रांत होने पर एकदम से सल्लेखना नहीं ली जाती। वह तो शरीर को अपनी साधना का विशेष साधन समझ यथासंभव उसका योग्य उपचार/प्रतिकार करता है, किंतु पूरी कोशिश करने पर भी जब वह असाध्य दिखता है और वह निःप्रतिकार प्रतीत होता है तो उस विषम परिस्थिति में मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अपने व्रतों की रक्षा में उद्यत हो, समभावपूर्वक मृत्युराज के स्वागत में तैयार हो जाता है।'
सल्लेखना को आत्मघात नहीं कहा जा सकता। यह तो देहोत्सर्ग की तर्कसंगत और वैज्ञानिक पद्धति है, जिससे अमरत्व की उपलब्धि होती है । सल्लेखना की इसी युक्तियुक्तता एवं वैज्ञानिकता से प्रभावित होकर बीसवीं शताब्दी के विख्यात संत 'विनोबा भावे' ने जैनों की इस साधना को अपनाकर सल्लेखनापूर्वक देहोत्सर्ग किया था ।
सल्लेखना का महत्त्व
सल्लेखना को साधक की अंतःक्रिया कहा गया है। अंतक्रिया यानि मृत्यु के समय की क्रिया को सुधारना अर्थात् काय और कषाय को कृश करके संन्यास धारण करना, यही जीवन-भर के तप का फल है । जिस प्रकार वर्ष भर विद्यालय में जाकर विद्या- अध्ययन करने वाला विद्यार्थी, यदि परीक्षा के वक्त विद्यालय नहीं जाता, तो उसकी वर्ष भर की पढ़ाई निरर्थक रह जाती है । उसी प्रकार जीवन-भर साधना करते रहने के उपरांत भी यदि सल्लेखनापूर्वक मरण नहीं हो पाता तो उसका वांछित फल नहीं मिल पाता। इसलिए प्रत्येक साधक को सल्लेखना जरूर से जरूर करनी चाहिए। मुनि और श्रावक दोनों के लिए सल्लेखना अनिवार्य हैं। 3 यथाशक्ति इसके लिए प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार युद्ध का अभ्यासी पुरुष रणांगन में सफलता प्राप्त करता है उसी प्रकार पूर्व में किए गए अभ्यास के बल से ही सल्लेखना सफल
पाती है। अतः जब तक इस भव का अभाव नहीं होता तब तक हमें प्रति समय 'समतापूर्वक मरण हों' इस प्रकार का भव्व और पुरुषार्थ करना चाहिए । वस्तुतः सल्लेखना के बिना साधना अधूरी है। जिस प्रकार किसी मंदिर के निर्माण के बाद जब तब उस पर कलशारोहण नहीं होता, तब तक वह शोभास्पद नहीं लगता; उसी प्रकार जीवन-भर की साधना, सल्लेखना के बिना अधूरी रह जाती है। सल्लेखना साधाना के मंडप में किया जाने वाला कलशारोहण है ।
सल्लेखना की विधि
सल्लेखना या समाधि का अर्थ एक साथ सब प्रकार के खान-पान का त्याग करके बैठ जाना
1. सर्वा. सि. 7/22
2. अन्तः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते ।
तस्माद्यावद्दिभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यं । र क. श्री. 123
3. मारणान्तिकीं सल्लेखना जोषिता । तू सू 7/22
4. भग आ. मू 20-21