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234 / जैन धर्म और दर्शन
व्यक्तिगत निराकुलता एवं सामाजिक सद्भाव दोनों दृष्टियों से उपयोगी है, क्योंकि इस व्रत के हो जाने पर अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह/संचय और उपभोग बंद हो जाता है। इससे गृहस्थ अनावश्यक खर्च और आकुलता से बच जाता है तथा एक जगह अनावश्यक संग्रह न होने से दूसरों के लिए वह सुलभ हो जाती हैं। अनावश्यक मांग न होने के कारण समाजवाद में यह व्यवस्था बहुत ही उपयोगी है कि व्यक्ति अपने उपयोग की ही वस्तु का संग्रह करे । अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह होने से दूसरे उसके उपभोग से वंचित हो जाते हैं ।
जो मनुष्य भोग और उपभोग के साधनों को कम करके अपनी आवश्यकताओं को कम कर लेता है, उसका खर्च भी कम हो जाता है। खर्च कम हो जाने से वह सीमित साधनों में भी अपने जीवन का निर्वाह कर लेता है। तृष्णा घट जाने से वह न्याय और नीति का विचार करके ही अपना कार्य करता है । अतः इस व्रत के धारी को दूसरों की कष्टदायी आजीविका की भी जरूरत नहीं पड़ती ।
भोगोपभोग परिमाणव्रती अपने खान-पान को भी सात्त्विक रखता है। वह मद्य, मांस, मधु का त्याग तो करता ही है, अपने भोजन में मादकता बढ़ाने वाले पदार्थों को भी नहीं लेता । वह तो शरीर पोषक तत्त्वों के साथ संतुलित भोजन ही लेता है। इसी प्रकार वह केतकी के फूल, अदरक, गाजर, मूली आदि जमीकंदों का भी सेवन नहीं करता क्योंकि वे अनंतकाय होते हैं, अर्थात् इनमें एक-एक के आश्रय से अनंतानंत निगोदिया जीव निवास करते हैं । इसी प्रकार और भी अशुचि पदार्थ जैसे गोमूत्र आदि उनका भी सेवन नहीं करता । वर्तमान में प्रचलित ऐसी औषधियां जिनके निर्माण का ठीक से पता नहीं चलता तथा जिनमें अशुचि पदार्थों के सम्मिश्रण की संभावना रहती है या जो पेय औषधि है, उसका सेवन भी भोगोपभोग परिमाणव्रती को नही करना चाहिए ।
4. अतिथि संविभाग : जो संयम को पालते हुए भ्रमण करते हैं ? उनको अतिथि या साधु कहते हैं ऐसे अतिथियों को अपने लिए बनाये गये भोजन में से विभाग करके भोजन देना अतिथि संविभाग कहलाता है। व्रती, श्रावक प्रतिदिन अपने भोजन से पूर्व उत्तम, मध्यम, जघन्य तीन प्रकार के पात्रों की प्रतीक्षा करता है। मुनि उत्तम पात्र है, आर्यिका ऐलक क्षुल्लक, क्षुल्लिका या व्रती श्रावक मध्यम पात्र कहलाते हैं तथा सामान्य जैन गृहस्थ जघन्य पात्र कहलाते हैं। तीन प्रकार के पात्रों में जो भी पात्र मिलते हैं उन्हें वह श्रद्धा भक्ति पूर्वक भोजन कराता है। 4
यदि कोई मुनिराज मिलते हैं तो इसे अपना सौभाग्य समझ, श्रद्धा, भक्ति अलुब्धता, दया, क्षमा और विवेक इन सात गुणों से भूषित होकर नवधा भक्तिपूर्वक उन्हें आहार देता है। नवधा भक्ति निम्न है
(1) प्रतिग्रह (2) उच्चासन (3) पादप्रक्षालन (4) पूजन (5) प्रणाम (6) मनशुद्धि
1 र क. श्रा 84
2 सर्वा सि. 7/21, पृ 280
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वही
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का. अनु गा. 360
5 का अनु गा. टी., पृ 263