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आत्मविकास के क्रमोन्नत सोपान / 203
जाने के कारण इन्हें अप्रमत्त-संयत कहते हैं।'
यद्यपि उक्त साधक सतत् अप्रमत्त रहना चाहते हैं फिर भी प्रमाद जनित संस्कार इन्हें एकदम नहीं छोड़े देते। वे बीच-बीच में उन्हें परेशान करते रहते हैं। परिणामतः वे पुनः प्रमाद अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। प्रमादावस्था को प्राप्त करने पर तुरंत ही अपने आत्मध्यान के बल से अप्रमादावस्था को प्राप्त कर लेते हैं। जिस प्रकार तरंगायित जल पर पड़ा लकड़ी का टुकड़ा लहरों के उतार-चढ़ाव के कारण ऊपर-नीचे होता रहता है उसी प्रकार इनकी नैया प्रमत्त-अप्रमत्तावस्था के बीच डोलती रहती है। ये स्वस्थान अप्रमत्त कहलाते हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही स्थितियों में यह भूमिका संभव है।
अनेक बार प्रमत्त-अप्रमत्त अवस्थाओं का स्पर्श करने के बाद कुछ अप्रमत्त संयत अपनी आत्म-साधना के बल से चेतना का ऊर्ध्वारोहण कर आठवें गुण-स्थान के अभिमुख हो जाते हैं. उन्हें सातिशय अप्रमत्त कहा जाता है। वे अपने परिणामों की अति प्रमादजन्य संस्कारों को पूर्णरूपेण पराजित कर समस्त मोहनीय कर्म को नष्ट करने के लिए कमर कस लेते हैं, इस तरह यह गुण-स्थान दो प्रकार का हो जाता है।
दो श्रेणियां इससे आगे बढ़कर साधक अपने विजय अभियान को और तेज कर देता है। अब वह अपने प्रगति पथ पर आरूढ़ हो,आत्मविकास की गति को और तेज कर देता है । इसे जैन दर्शन में 'श्रेणी' शब्द से जाना जाता है। श्रेणी-सीढी का प्रतीक है.जिस पर आरूढ़ हो साधक,कर्म-विनाश का विशेष उपक्रम प्रारंभ करता है । यह श्रेणी दो प्रकार की होती है-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी ।
उपशम श्रेणी : उपशम श्रेणी में साधक मोहनीय कर्म का समूल नाश नहीं कर पाता, अपितु उन्हें दमित करता हुआ अर्थात् दबाता हुआ आगे बढ़ता जाता है। जिस प्रकार शत्रु सेना को खदेडकर की गयी विजय-यात्रा.राजा के लिए अहितकर होती है, क्योंकि वह कभी भी समय पाकर राजा पर पुनः आक्रमण कर सकता है। उसी प्रकार इस विधि से प्रशमावस्था को प्राप्त कर्म शक्ति कभी भी समय पाकर आत्मा का अहित कर सकती है। जिस प्रकार गंदले जल में फिटकरी आदि कोई केमिकल डाल देने पर उसकी गंदगी नीचे को बैठ जाती है तथा जल अत्यंत स्वच्छ और निर्मल हो जाता है, लेकिन बर्तन में थोड़ा भी हलन-चलन होते ही वह गंदगी पुनः उभरकर आ जाती है। उसी प्रकार कर्मों के उपशम जन्य अल्पकालिक विशुद्धि के कारण आत्मा में स्वच्छता तो आ जाती है। लेकिन मोहोदय हो जाने के कारण अपनी उपरिम भूमिका से फिसलकर नीचे गिर जाता है। उपशम श्रेणी वाले जीव अपने कर्मोन्मूलन के क्रम को पूर्ण कर अंतिम सोपान तक नहीं ले जा सकते । ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर कर्मों के पुनः प्रकट हो जाने से उनका पुनः पतन हो जाता है।'
1 ध प 1/178 2. गो. जी. का 46 3. ल सा गा 105 4. तवा 9/1/18 5. ध. 1/37