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200 / जैन धर्म और दर्शन
से प्रसित होने के कारण इसी भूमिका में जीते हैं ।
2. सांसादन सम्यक्त्वरूपी रत्न पर्वत से नीचे गिरने वाला मिथ्यात्वाभिमुख दशा का नाम सासादन सम्यक् दृष्टि है। यह आत्म-विकास की दूसरी भूमिका है। इसका काल अति अल्प है । जब कोई सम्यक् दृष्टि अनंतानुबंधी कषायों के उद्वेग आ जाने से अपने सम्यक्त्व से स्खलित होता है, तब यह अवस्था बनती है । 2 सासादन का व्यौत्पत्तिक अर्थ भी यही है । स + आसादन, जो आसादन अर्थात् सम्यक्त्व की विराधना से युक्त है, वह सासादन है। जैसे मिठाई खाने के बाद वमन करते वक्त उसका कुछ-कुछ आस्वाद बना रहता है, वैसे ही सम्यक्त्व छूट जाने पर भी इस अवस्था में उसका किंचित् आस्वाद बना रहता है । इसलिए इन्हें सासादन सम्यक् दृष्टि कहते हैं।
यद्यपि प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा यह गुण-स्थान विकासात्मक है, परंतु यथार्थ में यह आत्मा की पतनोन्मुख दशा का द्योतक है। कोई भी जीव प्रथम गुण-स्थान से विकास कर इस गुणस्थान में नहीं आता, अपितु ऊपर के विकासात्मक गुण-स्थानों से पतित होकर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त होने के पूर्व (बीच की स्थिति में) इस गुण-स्थान को प्राप्त करता है ।
3. सम्यक् मिथ्यादृष्टि : तृतीय गुण-स्थान आत्मा की वह मिश्रित अवस्था है, जिसमें न केवल सम्यक् दृष्टि रहती है, न मिथ्या दृष्टि । इसमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की मिश्रित दशा रहती है : जिसके कारण आत्मा में तत्त्व व अतत्त्व को समझने की क्षमता नहीं रहती । यह एक अनिश्चयात्मक अवस्था है। इसमें जीव सत्य और असत्य के मध्य ही झूलता रहता है, न वह सत्य की ओर उन्मुख हो पाता है और न ही असत्य को स्वीकार कर पाता है । वह सत्य को सत्य समझने के साथ-साथ असत्य को भी सत्य रूप स्वीकार करने लगता है। इस अवस्था वाले साधक सम्यक्त्व से लगाव होने के साथ-साथ मिथ्यात्व की ओर झुकाव बनाये रखते हैं। इसे ऐसे समझें- जैसे एक बहुत बड़े हाल में छोटा-सा टिमटिमाता दीपक रख देने पर वहां प्रकाश और अंधेरे का धुंधलापन दिखाई पड़ता है। न तो वहां इतना प्रकाश है कि हम पुस्तक को पढ़ सकें, न ही इतना अंधेरा रहता है कि पुस्तक दिखाई ही न दे। वहां पुस्तक तो दिखाई देती है पर अक्षर नही दिखते । न वहां इतना अंधेरा है कि चलते में ठोकर खाकर गिर पड़े, न इतना प्रकाश है कि सुई में डोरा डाल सकें। प्रकाश और अंधेरे की ऐसी ही मिश्रित अवस्था को जैनागम में सम्यक्- मिथ्यादृष्टि कहा गया है, जहां सम्यक्त्व का प्रकाश होने के साथ- साथ मिथ्यात्व का अंधेरा भी है ।
इस गुणस्थान में जीव की विवेकशक्ति पूर्ण विकसित नहीं हो पाती यह अवस्था अधिक काल तक नहीं चलती। उसकी अनिश्चयात्मक अवस्था के समाप्त होने पर यदि
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