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आत्मविकास के क्रमोन्नत सोपान
जीवन विकासशील है। जीवन के विभिन्न पक्षों के विकास का आकलन विभिन्न माध्यमों से किया जाता है। शरीर सम्बन्धी विकास को शारीरिक विकास कहते हैं तथा मन संबंधी विकास मानसिक विकास कहलाता है। इसी प्रकार आत्मा सम्बन्धी विकास आत्मिक या
आध्यात्मिक विकास कहलाता है। जैसे बाल, युवा, वृद्ध, आदि अवस्थाओं में क्रम होता है; हेमन्त, शिशिर, बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद आदि ऋतुओं में क्रम होता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक विकास का भी अपना एक क्रम होता है-प्रथम भूमिका, द्वितीय भूमिका, तृतीय भूमिका आदि । जैन दर्शन के अनुसार माधक ज्यों-ज्यों अपनी साधना की ऊंचाइयों का स्पर्श करता है, त्यों-त्यों उसकी आत्मा का विकास होता जाता है। इस क्रम का परिज्ञान होने से आत्मा की उन्नत और अवनत अवस्थाओं का पता चलता है तथा इससे आत्मविकास की साधना में भी बहुत सहायता मिलती है। इसीलिए जैनागम में आत्मा की विकास-यात्रा को गुणस्थानों द्वारा अत्यंत सुन्दर ढंग से विचित किया गया है, जोकि न केवल साधक की विकास-यात्रा की विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण करता है, अपितु आत्मा की विकास यात्रा की पूर्व भूमिका से लेकर गंतव्य आदर्श तक की समुचित व्याख्या भी प्रस्तुत करता है ।
गुण-स्थान का अर्थ गुण का अर्थ होता है आत्मिक गुण' तथा स्थान का अर्थ है विकास । इस प्रकार आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुण-स्थान कहते हैं। जीव के परिणाम सदा एक से नहीं रहते। उसके मोह एवं मन, वचन, काय की वृत्ति के कारण अंतरंग परिणामों में उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। गुण-स्थान आत्म-परिणामों में होने वाले इन उतार-चढ़ावों का बोध कराता है। साधक कितना चल चुका है तथा कितना आगे और चलना है ? गुण-स्थान इसे बताने वाले मार्ग सूचक पट्ट हैं। गुण-स्थान जीव के मोह और निर्मोह दशा की भी व्याख्या करता है। यह संसार और मोक्ष के अन्तर को स्पष्ट करता है। गुण स्थानों के आधार पर जीवों के बंध और अबंध का भी पता चलता है। गुण-स्थान आत्म-विकास का दिग्दर्शक है।
जैन दर्शन के अनुसार जीवात्मा अनंत ज्ञान, दर्शन,सुख और शक्ति स्वरूपी है। किंतु अनादि कर्मों से बद्ध होने के कारण वह प्रकट नहीं हो पाता कर्मावरण उसके मूल रूप को