________________
मोक्ष के साधन / 193
अवधिज्ञान अक्रम से कभी एक रूप नहीं रहता है। यह छह भेद स्वामी की अपेक्षा है। विषय-क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान के तीन भेद है। देशावधि, परमावधि और सर्वाविधि । इनके विषय-क्षेत्र और पदार्थों के ज्ञान में उत्तरोत्तर अधिक विस्तार और विशुद्धि पाई जाती है। देशावधि एक बार होकर छूट भी सकता है और इस कारण वह प्रतिपाती है किन्तु परमावधि और सर्वावधि ज्ञान उत्पन्न होने के बाद केवल ज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त कभी नहीं छूटते । ये दोनों तद्भव मोक्षगामी मुनियों के ही होते हैं।
मन:पर्ययज्ञान : दूसरों के मनोगत अर्थ को जानने वाला ज्ञान मनःपर्ययज्ञान है। यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गल द्रव्यों को साक्षात् जानने वाला है। चिन्तक जैसा सोचता है मन में उसके अनुरूप पुद्गल द्रव्यों की आकृतियां/पर्याएं बन जाती हैं। वस्तुतः मनःपर्यय का अर्थ है मन की पर्यायों का ज्ञान ।।
__ मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं “ऋजुमति और विपुलमति” ऋजुमति सरल मन, वचन, काय से विचार किए गए पदार्थ को जानता है पर विपुलमति मनःपर्ययज्ञान सरल और टिल दोनों तरह से विचार किए गए पदार्थों को जानता है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है। ऋजुमति एक बार होकर छूट भी सकता है किन्तु विपुलमति ज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त बना रहता है। इसलिए इसे अप्रतिपाती कहते हैं। दोनों प्रकार का मनःपर्ययज्ञान ऋद्धिधारी मुनियों को ही होता है।
___ अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान में विशुद्धि क्षेत्र स्वामी और विषय की अपेक्षा अन्तर है। अवधिज्ञान के द्वारा ज्ञात किए गए पदार्थ के अनन्तवें भाग को मनःपर्ययज्ञान जानता है।
केवलज्ञान-त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और पर्यायों को युगपत प्रत्यक्ष जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। केवलज्ञानी को ही सर्वज्ञ कहते हैं। केवलज्ञानी केवलज्ञान होते ही लोक और अलोक दोनों को जानने लगता है। केवलज्ञान का विषय सर्वद्रव्य और पर्याय है। कोई भी वस्तु ऐसी नही है जो केवलज्ञान का विषय न हो। समस्त ज्ञानावरण कर्म के ममूल विनष्ट होने पर यह ज्ञान उत्पन्न होता है। यह पूर्णत निरावरण और निर्मल ज्ञान है। इस ज्ञान के उत्पन्न होते ही समस्त क्षायोपशिक ज्ञान विलीन हो जाते हैं। केवलज्ञान आत्मा की ज्ञान शक्ति का पूर्ण विकसित रूप है।
सम्यक् चारित्र जिसके द्वारा हित को प्राप्ति और अहित का निवारण हो वह चारित्र है। सम्यक् चारित्र दो प्रकार का है व्यवहार चारित्र और निश्चय चारित्र । सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान पूर्वक विषय वासना, हिसा, झुठ चोरी कुशील और परिग्रह रूप अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति के साथ व्रतशील सयमादि धारण करना व्यवहार चारित्र है।
बाह्य क्रिया अर्थात पापों के निरोध से तथा अभ्यन्तर क्रिया अर्थात् योगों के निरोध मे उत्पन्न आत्मा की शुद्धि विशेष निश्चय चारित्र है। इसी को समता, मध्यस्थता या 1 तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परपरा पृ 334 2 द्रव्य संग्रह गाथा 45