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________________ मोक्ष के साधन / 189 को सदा देखता रहता है तथा दूसरे के गुणों को । अपने गुणों को छिपाता है तथा दूसरे के दोषों को । अपनी निंदा करता है तथा दूसरों की प्रशंसा । दूसरे के दोषों तथा आने गुणों को छुपाने के कारण इस गुण का नाम 'उपगूहन' गुण है । अपने गुणों में निरंतर वृद्धि होते रहने के कारण उसके इस गुण का नाम 'उपबृंहण' गुण भी है। स्थितिकरण : सम्यक दृष्टि कभी किसी को नीचे नहीं गिराता । वह सभी को ऊंचा उठाने की कोशिश करता है। अपने-आपको भी वह हमेशा मोक्षमार्ग में लगाए रखता है। यदि कदाचित् किसी परिस्थितिवश वह उससे स्खलित होता है तो बार-बार अपने को स्थिर करने में तत्पर रहता है । उसी तरह किसी अन्य धर्मात्मा को किसी कारण से अपने मार्ग से स्खलित होते देखकर उसे बहुत पीड़ा होती है। वह येन-केन-प्रकारेण उसे सहायता देकर उसकी धार्मिक आस्था को दृढ़ करता है। भले ही इसमें उसे कोई कठिनाई उठानी पड़े। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक परेशानियों से अपने मार्ग से च्युत हो रहा है तो उसे आर्थिक सहयोग देकर अथवा किसी काम पर लगाकर उसे पुन: वहां स्थित करता है । शारीरिक रोग के कारण विचलित हो रहा है तो औषधि देकर शारीरिक सेवा करके उसे धर्ममार्ग में लगाता है । यदि कुसंगति या मिथ्या उपदेश के कारण वह अपने धर्म मार्ग से स्खलित होता है तो योग्य उपदेश देकर उसे पुन:स्थित करने का प्रयास करता है। अन्य भी कोई कारण आने पर वह यथासंभव सेवा देकर उसे स्थिर करता है । यही सम्यक् दृष्टि का स्थितिकरण अंग है। वात्सल्य : वात्सल्य शब्द वत्स से जन्मा है। वत्स का अर्थ होता है बछडा। जिस प्रकार गाय अपने बछडे के प्रति नि:स्वार्थ और निष्कपट तथा सच्चा प्रेम रखती है, उसमें कोई बनावटीपन नहीं होता, उसे देखकर उसका रोम-रोम पुलकित हो जाता है। उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि अपने, साधर्मी बंधुओं के प्रति निश्छल निःस्वार्थ और सच्चा प्रेम रखता है। उसमें कोई दिखावटी या बनावटीपन नहीं रखता। उन्हें देखकर उसे उतनी ही प्रसन्नता होती है जितनी कि किसी आत्मीय मित्र मे मिलकर होती है। वह उनके साथ अत्यंत आत्मीयता का व्यवहार करता है वह अपने प्रेम और वात्सल्य की डोर से पूरे समाज को बांधे रहता है। सभी लोग उसके प्रेम-पाश में बंधे रहते हैं। वह सबके प्रति महयोग और सहानुभूति की भावना रखता है। यह उसका वात्सल्य गुण है। प्रभावना : सम्यक दृष्टि की यह भावना रहती है कि जिस प्रकार हमें सही दिशा दृष्टि मिली है, सत्य धर्म का मार्ग मिला है। उसी प्रकार सभी लोगों का अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो, उन्हें भी सही दिशा मिले, वे भी सत्य धर्म का पालन करें । जगत् हितकारी इस प्रकार की भावना से अनुप्राणित होकर वह सदा अपने आचरण को विशुद्ध बनाए रखता है। उसका आचरण ऐसा बन जाता है कि उसे देखकर लोगों को धार्मिक आस्था उत्पन्न होने लगती है। व्यक्ति उसका अनुकरण कर उसके आदर्शों पर चलने लगते हैं। वह परोपकार, ज्ञान, संयम आदि के द्वारा विश्व में अहिंसा के सिद्धांतों का प्रचार करता है,तथा अनेक प्रकार के धार्मिक उत्सवों को भी करता है, जिसमें हजारों लोग एक स्थान पर एकत्रित होकर सद्भावनापूर्वक विश्वक्षेम की भावना भाते हैं) जिसे देखकर लोगों को अहिंसा धर्म की महिमा का भान होता है,यही उसका 'प्रभावना' गुण है। इस प्रकार निःशंकितादि आठ गुण सम्यक्त्व के कहे गए हैं। इन आठ गुणों के पूर्ण
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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