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मोक्ष आत्मा की परम अवस्था / 175
मोक्ष पूर्ण चैतन्य और आनंद की अवस्था है। अनादि-अविद्या से मुक्त होकर आत्मा का ब्रह्म में विलीन हो जाना ही मोक्ष है । वस्तुतः आत्मा ब्रह्म ही है. परतु वह अज्ञान से प्रभावित होकर अपने को ब्रह्म से पृथक् समझने लगता है। यही बधन है। अनादि अज्ञान का आत्यन्तिक अभाव ही मोक्ष है।
6. जैन दर्शन : जैन दर्शन में मोक्ष को बौद्धों की तरह अभावात्मक नहीं माना गया है, न ही सांख्यों की तरह मोक्ष को आनंदरहित माना गया है। न्याय-वैशेषिक और मीमांसक जहां मोक्षावस्था में चैतन्य गुणों का अभाव मानते है, वहां जैन दर्शन में मोक्ष का अर्थ चैतन्य गुणों की प्राप्ति से है, क्योकि चैतन्य आदि जीव के स्वाभाविक गुण हैं, उनका कभी अभाव नही हो सकता है। वेदात की तरह जैन दर्शन में आत्मा की ब्रह्मलीनता को मोक्ष नहीं कहा गया है, बल्कि मोक्ष आत्मा की पूर्ण शुद्ध अवस्था मानी गयी है तथा मोक्ष दशा में भी प्रत्येक आत्मा की स्वतत्र सत्ता को जैन दर्शन स्वीकार करता है।
उपरोक्त तुलनात्मक विवेचन का साराश यह है कि जैन दर्शन मान्य मोक्ष आत्म-स्वरूप के लाभ का ही नामांतर है,जोकि कर्म-मलों के क्षय से प्राप्त होता है। मोक्ष में बौद्धों की तरह आत्मा का अभाव नहीं होता, क्योंकि मोक्ष आत्म-स्वरूप की प्राप्ति है। ज्ञान
और चेतनत्व आत्मा का स्वाभाविक गुण होने के कारण मोक्ष मे आत्मा न्याय-वैशेषिकों की तरह ज्ञान-शून्य और अचेतन भी नहीं होता। मोक्ष आत्मा की परम और पूर्ण अवस्था है।
भक्त और भगवान भक्त और भगवान में कोई खाम अतर नही दानो ही हीग है फर्क सिर्फ इतना है एक खान में पडा है और एक शान पर चढ़ा है।
यह बात सही है कि प्रभु की स्तुति करना सूरज को दीपक दिखाना है
पर क्या करें सरज की आरती तो दीपक में ही उतारी जाती है। __ हम मब ब्रह्म के अश नही अपितु हम सबमें ब्रह्म जेमे अश है।
-आचार्य श्री विद्यामागर जी के प्रवचनों से
1 तत्त्वबोध सूत्र 40 2 मोक्ष स्वात्मोग्लब्धि ।-आ. मी. बसु. .40 3 सर्वा सि 1/1 पृ2