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कर्म मुक्ति
के उपाय : (संवर-निर्जरा) / 161
करना । सुख से प्राप्त हुआ ज्ञान प्रतिकूलता में नष्ट हो जाता है, अत. साधक को कष्ट-सहिष्णु होना चाहिए। इसी उद्देश्य से शारीरिक ममत्व को कम करने के लिये तथा तज्जन्य कष्ट सहने के लिए और धर्म की प्रभावना के लिए अनेक प्रकार के आसनों द्वारा खड़े रहना, बैठना, ध्यान लगाना आदि कायक्लेश तप है। ये छहों तप बाह्य वस्तु की अपेक्षा तथा दूसरों द्वारा प्रत्यक्ष होने के कारण बाह्य तप है।
अभ्यन्तर तप प्रायश्चित किये गए अपराधों के शोधन को प्रायश्चित कहते हैं। 'प्राय:' का अर्थ 'अपराध' है और 'चित्त' का अर्थ होता है 'शोधन'। अपराधों के शोधन की प्रक्रिया को प्रायश्चित कहते हैं। 'प्रायश्चित' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए, कहा गया है कि जिसके द्वारा पाप का छेदन हो वह प्रायश्चित है।
यह एक ऐसा तप है, जिसमें अपने अज्ञान व प्रमादवश हुई भूलों का अहसास होते ही साधक का मन पश्चाताप से भर जाता है तथा वह निश्छल भाव से उसे अपने गुरु के समक्ष प्रकट कर देता है । जैसे,किसी कुशल वैद्य के हाथों दी गयी औषधि को रोगी,अपने लिये हितकारी जान,कड़वी होने पर भी बड़े उत्साह से उसे ग्रहण करता है,वैसे ही प्रायश्चित से शिष्य,गुरु द्वारा प्रदत्त अल्प या अधिक दंड को अपना सौभाग्य समझ सहर्ष स्वीकार करता है।
कुछ लोग प्रायश्चित को दंड समझते हैं। प्रायश्चित दंड नहीं है। दोनों में अंतर है। प्रायश्चित ग्रहण किया जाता है, दंड दिया जाता है प्रायश्चित में सहज स्वीकृति है, दंड में मजबूरी । प्रायश्चित लेने वाले का मन पश्चात्ताप से भरा होता है, जबकि दंड भोगने वाले को प्रायः अपराध-बोध भी नहीं रहता, यदि कदाचित् होता भी है तो उसके प्रति पश्चाताप नहीं होता । प्रायश्चित को लेने वाला उसे समझता है-स्वयं पर गुरु की कृपा तथा दंड को समझा जाता हे बोझ। दोनों की मानसिकता में महान अंतर है। अतःदोनों एक नहीं कहे जा सकते।
प्रायश्चित-तप से दोषों का नाश होता है तथा भावों की विशुद्धि होती है। प्रायश्चित वही लेता है, जिसका मन सरल होता है।
विनय : पूज्य-पुरुषों एवं मोक्ष के साधकों के प्रति हार्दिक आदर-भाव विनय है।' विनय की व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हुए कहा गया है कि “विलयं नयति कर्ममलमिति विनयः” अर्थात् जो कर्म मल को दूर कर दे, वह विनय है। इसलिए विनय को 'मोक्ष का द्वार' कह गया है।
मो.पा. 62
1 अदुक्ख भाविद णाण दुहे जादे विणस्मदि
तम्हा बहा बल जोई भावह दुक्खस्स भावणा 2त वा 9/19/14 3 तवा 922/1 4 पाव छिदई जम्हा पायच्छित तु मण्णई तेण आ नि 1503 5 सर्वा सि 9120/439 6 भग आरा विजयो 300/51121 7 अमूचा 386ब भाग आमू 129