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कर्म मुक्ति के उपाय :-(संवर-निर्जरा) / 159
उल्लेख करते हुए 'भगवती आराधना' में कहा गया है कि “जगत् में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है,जो निर्दोष तप से प्राप्त नहीं होता । जैसे अग्नि तृण को जलाती है वैसे ही तप रूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को जलाकर भस्म कर डालती है। उत्तम प्रकार से किया गया आस्रव-रहित तप का फल वर्णन करने में हजारों जिह्वाओं वाला शेषाद्रि भी समर्थ नहीं है।"]
तप का लक्षण तप की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की गई है। किसी ने अमुक व्रत को ही तप माना है, किसी ने वनवास, कंद-मूल भक्षण अथवा सूर्य के आतप को सहना ही तप माना है,तो किसी ने देह और इन्द्रियों के दमन से ही तप की पूर्णता स्वीकार की है, किसी ने मात्र मानसिक तितिक्षा को ही तप मानने की हिमायत की है, परंतु जैन धर्म में तप का बड़ा विशद अर्थ किया गया है और उसमें शरीर, मन और आत्मा की शद्धि करने वाली सर्ववस्तुओं को स्थान दिया गया है।
'इच्छा निरोधस्तपः"2: यह जैनों का प्रसिद्ध सूत्र है । तप का मूल उद्देश्य इच्छाओं का निरोध ही है। इसलिए अज्ञान पूर्वक, लौकिक,ख्याति, पूजा, प्रतिष्ठा और लाभ की भावना से. किए गए तप को बाल-तप (अज्ञानियों का तप) कहा गया है। वस्तुतः ऐहिक आकांक्षाओं से ऊपर उठकर, सिर्फ कर्म क्षय के लिए किया गया पुरुषार्थ ही तप है। आचार्य अकलंकदेव ने तप का लक्षण करते हुए कहा है, "कर्म निर्दहनात्तपः"3 कर्मों का दहन अर्थात् भस्म कर देने के कारण ही इसे तप कहते हैं, जैसे अग्नि संचित-तृणादि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी प्रकार तप भी जन्म-जन्मांतरों के संचित कर्मों को जला डालते हैं; तथा देह और इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति को रोककर, उन्हें तपा देते हैं, अतः ये तप कहे जाते हैं 4 “तवो विसयविणि ग्गहो जत्थ" तप वही है जहां विषयों का निग्रह है।
तप के भेद तप के बारह भेद हैं। अनशन, ऊनोदर, वृत्ति-परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त-शय्यासन
और काय-क्लेश ये छह बाह्य तप हैं। बाह्य द्रव्यों के आलंबनपूर्वक होने से तथा बाहर प्रत्यक्ष दिखने से इन्हें बाह्य तप कहते हैं। प्रायश्चित विनय,वैयावत्य स्वाध्याय व्यत्सर्ग और ध्यान ये छहों भेद आभ्यंतर तप के हैं। मनोनिग्रह से संबंध होने के कारण इन्हें आभ्यंतर तप कहते हैं। बाह्य तप भी आभ्यंतर तप की अभिवृद्धि के उद्देश्य से ही किये जाते हैं। बाह्य-तप आभ्यंतर तप का साधन हैं।
1. म् आ मू. गा. 1472, 1473 2. चा. सा. 59 3. त. वा. 9/19/18 4. त. वा. 9/19/20 5. नि. सा. त वृ6/15 6. स सि 9/19 7. स. सि. 920