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जैन धर्म और दर्शन
धर्म
जो व्यक्ति को दुख से मुक्त कराकर सुख तक पहुचा दे, उसे धर्म कहते हैं।' इम धर्म के दस लक्षण कहे गए हैं-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, सयम, तप, त्याग, अकिचन्य
और ब्रह्मचर्य । ये दसों धर्म आत्मा के भावनात्मक परिवर्तन से उत्पन्न विशुद्ध परिणाम हैं, जो आत्मा को अशुभ कर्मों के बध से रोकने के कारण सवर के हेतु हैं। ख्याति, पूजा आदि से निरपेक्ष होने के कारण इनमे 'उत्तम' विशेषण लगाया गया है।
1. क्षमा क्रोध के कारण उपस्थित रहने पर भी क्रोध न करना क्षमा है। कायरता क्षमा नही है। समर्थ रहने पर भी क्रोधोत्पादक निदा, अपमान, गाली-गलौच आदि प्रतिकूल व्यवहार होने पर भी मन मे कलुषता न आने देना 'उत्तम क्षमा' है।
2. मार्टव चित्त मे मदता और व्यवहार में विनम्रता 'मार्दव है। यह मान कषाय के अभाव मे प्रकट होता है। जाति, कुल, रूप, ज्ञान, तप, वैभव, प्रभुत्व और ऐश्वर्य सबधी अभिमान-मद कहलाता है। इसे विनश्वर समझ मान कषाय को जीतना ‘मार्दव' कहलाता
3. आर्जव 'आर्जव' का अर्थ होता है-'ऋजुता' या 'सरलता', अर्थात् बाहर-भीतर एक होना। मन में कुछ, वचन मे कुछ तथा प्रक्ट मे कुछ, यह प्रवृत्ति कुटिलता या मायाचारी है । इस मायाकषाय को जीतकर मन, वचन और काय की क्रिया में एकरूपता लाना 'आर्जव'
4. शौच 'शौच' का अर्थ होता है-पवित्रता' या 'सफाई' । मद, क्रोधादिक बढाने वाली जितनी दुर्भावनाए है, उनमे लोभ सबसे प्रबल है । इसे जीतकर लोभ पर विजय पाना ही उत्तम शौच है।
5. सत्य यथार्थ बोलना सत्य है । दूसरो के मन मे सन्ताप उत्पन्न करने वाले, निष्ठुर और कर्कश, कठोर वचनो का त्याग कर, सबके हितकारी और प्रिय वचन बोलना 'सत्य' धर्म है। अप्रिय शब्द भी असत्य की कोटि मे आ जाता है।
6. सयम 'सयम' का अर्थ होता है-आत्म नियत्रण/पाचो इद्रियो की प्रवृत्तियो पर अकुश रखकर,उनकी निरर्गल प्रवृत्तियो पर नियत्रण रखना 'सयम' धर्म है।
7. तप इच्छा के निरोध को 'तप' कहते है। विषय कषायो का निग्रह करके बारह प्रकार के तप में चित्त लगाना 'तप' धर्म है। तप धर्म का प्रमुख उद्देश्य चित्त की मलिन वृत्तियो का उन्मूलन है।
8. त्याग परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते है। बिना किसी प्रत्युपकार की अपेक्षा के अपने पास होने वाली ज्ञानादि सपदा को दूसरो के हित व कल्याण के लिए लगाना उत्तम 'त्याग' है।
9. आकिचन्य ममत्व के परित्याग को 'आकिचन्य' कहते हैं। आकिचन्य का अर्थ होता है 'मेरा कुछ भी नही है।' घर-द्वार, धन-दौलत, बधु-बाधव आदि यहा तक कि शरीर भी मेरा नहीं है। इस प्रकार का अनासक्ति भाव उत्पन्न होना 'आकिचन्य' धर्म है। सबका
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