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कर्म मुक्ति के उपाय :-(संवर-निर्जरा) / 147
कर्म मुक्ति के उपाय
संवर जीव अपने मोह और अज्ञान के कारण निरन्तर कर्मों का आस्रव और बंध करता आ रहा है । आखिर कर्म बंध के इस अनंत प्रवाह का कोई अंत भी है या नहीं ? क्या बघ की यह परंपरा ऐसे ही चलती रहेगी? या उससे बचने का कोई उपाय भी है ? इसका एक ही उपाय है वह है संवर। संवर का अर्थ होता है-रोकना.बंद करना। यह आस्त्रव का विरोधी है। आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं।' आस्रव जहां कर्म मल के प्रवेश करने में नाली की तरह है, तो संवर उस नाली के प्रवेश द्वार को बद कर कर्म-प्रवाह को रोकता है। इससे नवीन कर्मों का आस्रव रुक जाता है, और सत्तागत संचित कर्मों की अभिवृद्धि पर अकुश लग जाता है। इसलिए संवर को परम उपादेय माना गया है । सवर का व्यौत्पत्तिक अर्थ भी यही है। सम्यक् वरण को, संवरण को, संवर कहते हैं। जो अच्छी तरह से वरण करने योग्य हो, अपनाने योग्य हो, वह संवर है ।
संवर का महत्त्व मोक्षमार्ग में संवर का महत्वपूर्ण स्थान है। संवर से ही मोक्षमार्ग के विकास का क्रम प्रारंभ होता है। जितना-जितना संवर होता है, उतना-उतना ही आत्मिक विकास होता जाता है। सवर सहित निर्जरा को ही मोक्षमार्ग का साधन कहा गया है।
मान लीजिये हमें एक ऐसी नाव पर यात्रा करना पड़ रहा है, जिसमें अनेक छिद्र हैं, जिसमें जल प्रविष्ट हो रहा है, नाव का भार बढ़ रहा है, उसका सतुलन खो रहा है, वैसी स्थिति में उस नाव को खाली करना तभी संभव होगा,जब हम उसके छिद्रों को बंद कर जल उलीचना प्रारंभ करें। उसके अभाव में निरंतर उलीचते रहने के बाद भी नाव को खाली कर पाना मुश्किल है क्योंकि जिस गति से हम पानी उलीच रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, उसी गति से जल भी प्रविष्ट हो रहा है। वैसी स्थिति में नाव को खाली कर पाना असंभव है। हमारा मारा परिश्रम व्यर्थ सिद्ध होगा। परिणामतः उस नाव को डूबने से नहीं बचाया जा सकता। जीवात्मा भी एक नाव के समान है,जो संसार समुद्र में तैर रही है। हमारे शुभाशुभ भावों के छिद्रों से उसमें निरंतर कर्म-जल प्रवेश कर रहा है। उन छिद्रों को बंद करने पर ही हम अपनी नाव को उबार सकते हैं । निर्जरा के लिए संवर अनिवार्य है।
1 तत्वार्थ सूत्र अध्याय 9/1