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134/ जैन धर्म और दर्शन
___4. जिसके उदय से प्राप्त उपभोग्य वस्तु का उपभोग न किया जा सके, वह 'उपभोगांतराय कर्म' है।
5. जिसके उदय से सामर्थ्य होते हुए भी कार्यों के प्रति उत्साह न हो, उसे 'वीराय कर्म' कहते हैं।
अंतराय कर्म के बंध के कारण : दानादि में बाधा उपस्थित करने से, जिन पूजा का निषेध करने से.पापों में रत रहने से.मोक्ष-मार्ग में दोष बताकर विघ्न डालने से अंतराय कर्म का बंध होता है।
पाप
जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा दी है कि वैयक्तिक संदर्भ में जो आत्मा को बंधन में डाले जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनंद का शोषण करे और आत्मशक्तियों का क्षय करे वह पाप है (पापाय परपीड़न)। वस्तुतः जिस विचार एवं आचार से अपना और पर का अहित हो
और जिससे अनिष्ट फल की प्राप्ति हो वह पाप है। नैतिक जीवन की दृष्टि से वे सभी कर्म जो स्वार्थ,घृणा या अज्ञान के कारण दूसरे का अहित करने की दृष्टि से किए जाते हैं. पाप कर्म हैं। इतना ही नहीं. सभी प्रकार के दर्विचार और दुर्भावनाएं भी पाप कर्म हैं।
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