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कर्म और उसके भेद-प्रभेद / 129
के योग से सुंदर-असुंदर आदि अनेक चित्रों को निर्मित करता है, उसी तरह नाम कर्म रूपी चितेरा, जीव के भले-बुरे, सुंदर-असुंदर, लंबे-नाटे, मोटे-पतले, छोटे-बड़े, सुडौल-बेडौल आदि शरीरों का निर्माण करता है। जीव की विविध आकृतियों एवं शरीरों का निर्माण इसी नाम-कर्म की कृति है। विश्व की विचित्रता में नाम-कर्म रूप चितेरे की कला अभिव्यक्त होती है। इस नाम-कर्म के मुख्य बयालीस भेद हैं, तथा इसके उपभेद कुल तेरानवें हो जाते हैं
1. गति : जिस कर्म के उदय से जीव एक योनि से अगली योनि में जाता है, वह 'गति' नाम-कर्म है । गतियां चार हैं-मनुष्य, देव, नरक एवं तिर्यच ।
2. जाति : जिस नाम-कर्म के उदय से सदृशता के कारण जीवों का बोध हो,उसे जाति नाम-कर्म कहते हैं। जातियां पांच हैं—एकेन्द्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय तथा पांच इंद्रिय।
3. शरीर : शरीर की रचना करने वाले कर्म को शरीर नाम-कर्म कहते हैं। इसके पांच भेद हैं-औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण शरीर।।
4. आंगोपांग : जिस कर्म के उदय से शरीर के अंग और उपांगों की रचना होती है, अर्थात् शरीर के अवयवों और प्रत्यवयवों की रचना करने वाला कर्म 'आंगोपांग' नाम-कर्म है। इसके तीन भेद हैं-औदारिक, वैक्रियिक व आहारक । तीनों अपने-अपने शरीर के अनुरूप आंगोपांगों की रचना करते हैं। तैजस और कार्माण शरीर सूक्ष्म होने के कारण आंगोपांग रहित होते हैं।
5. निर्माण : शरीर के आंगोपांगों की समुचित रूप से रचना करने वाला 'निर्माण' नाम-कर्म है।
6. शरीर बंधन : शरीर का निर्माण करने वाले पुदगलों को परस्पर बांधने वाले कर्म-बंधन-नाम-कर्म हैं। पूर्वोक्त शरीर के अनुसार यह पाच प्रकार का है।
7. शरीर संघात : निर्मित शरीर के परमाणुओं को परस्पर छिद्रहित बनाकर एकीकृत करने वाले कर्म को शरीर-संघात नाम-कर्म कहते हैं। इसके अभाव में शरीर तिल के लड्डू की तरह अपुष्ट रहता है। यह भी शरीरों की तरह पाच प्रकार का होता है।
8. संस्थान : शरीर को विविध आकृतिया प्रदान करने वाला कर्म ‘संस्थान' नाम-कर्म है। इसके छह भेद हैं
(1) समचतुरस्त्र संस्थान : सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जीव के सुंदर, सुडौल और समानुपातिक शरीर बनाने वाले कर्म को 'समचतुरस्त्र-सस्थान नाम-कर्म' कहते हैं।
(2) न्योग्रोध परिमंडल : 'न्योयोध' अर्थात् 'वट के वृक्ष' की तरह, नाभि से ऊपर की ओर मोटे और नीचे की ओर पतले शरीर का आकार बनाने वाले कर्म को 'न्योग्रोध' परिमंडल संस्थान नाम-कर्म कहते हैं।
(3) स्वाति : सर्प की वामी की तरह नाभि के ऊपर पतले तथा नीचे की ओर मोटे
1. ध पु. 1/363 2. ध पू6/53 3 सर्वा, सि पृ.304