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122 / जैन धर्म और दर्शन
7. प्रचला, 8. प्रचलाप्रचला, 9. स्त्यान - गृद्धि । 1
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'चक्षु दर्शनावरण कर्म' नेत्रों द्वारा होने वाले सामान्य अवबोध को रोकता है। चक्षु के अलावा शेष इंद्रियों से होने वाले सामान्य बोध को 'अचक्षु दर्शनावरण' रोकता 'अवधि - दर्शनावरण' इंद्रिय और मन के बिना होने वाले रूपी पदार्थ के सामान्य बोध को रोकता है। 2 तथा केवल दर्शनावरण कर्म सर्वद्रव्यों और पर्यायों की युगपत होने वाले सामान्य अवबोध को रोकता है।
हल्की नींद को निद्रा कहते हैं। ऐसी नीद कि प्राणी आवाज लगाते ही जाग उठें, 'निद्रा कर्म' से उत्पन्न होती है। 'निद्रा-निद्रा' कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, जिससे प्राणी बड़ी मुश्किल से जाग पाता है । प्रचला कर्म के उदय से जीव खड़े-खड़े या बैठे-बैठे ही सो जाया करता है । प्रचलाप्रचला कर्म के उदय से नीद में मुख से लार बहने लगती है, तथा हाथ-पैर आदि चलायमान हो जाते हैं। 'स्त्यान- गृद्धि कर्म' के उदय से ऐसी प्रगाढ़तम नींद आती है, जिससे व्यक्ति दिन में या रात्रि में सोचे हुए कार्य-विशेष को निद्रावस्था में ही संपन्न कर देता है ।"
निद्रा में आत्मा का अव्यक्त उपयोग होता है, अर्थात् उसे वस्तु का सामान्य आभास नहीं हो सकता। इसलिए 'निद्रा' के पांच भेदों को दर्शनावरणी कर्म के उत्तर भेदों में परिगणित किया गया है । चक्षु दर्शनावरणदि चारों दर्शनावारणी कर्म दर्शन-शक्ति के प्राप्ति में बाधक होते है ।
जिन कारणो से ज्ञानावरणी कर्म का बंध होता है, दर्शनावरणी कर्म भी उन्ही साधनों से बंधता है। अंतर केवल इतना है कि यहां ज्ञान और ज्ञान के साधन न होकर, दर्शन और दर्शन के साधनो के प्रति वैसा व्यवहार होने पर, दर्शनावरणी बंधती है ।7
3. वेदनीय कर्म . जो कर्म-जीव को सुख या दुःख का वेदन कराता है, वह वेदनीय कर्म है । यह दो प्रकार का होता है - 1. साता वेदनीय एवं 2. असाता वेदनीय। जिस कर्म के उदय से प्राणी को अनुकूल विषयों की प्राप्ति से सुख का अनुभव होता है, वह 'साता' वेदनीय कर्म है । जिस कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर दुःख का संवेदन होता है वह 'असाता' वेदनीय कर्म है। वेदनीय कर्म की तुलना मधु से लिप्त तलवार से की गयी है। जिस प्रकार शहद लिप्त तलवार की धार को चाटने से पहले अल्प-सुख और फिर अधिक दुःख होता है, वैसे ही पौद् गालिक सुख में दुःखों की अधिकता होती है। मधु को चाटने के सदृश, सातावेदनीय है और जीभ कटने की तरह असातावेदनीय है ।'
1 त सू 8/7
2 त वा 8/13-14-15
3 (अ) गो कर्म काड जी त प्र गा 23-24
(ब) सुख पडि बोहा निद्धा, निद्धा निद्धाय दुक्ख पडिवोहा ।
4 कर्म ग्रथ गा. 2
5 कर्म काड 24
6 कर्म काड 23
7 त सू 6/10
8 सर्वा सि, पृ 296
9 वृ द्र स टी गा 33
- पंचम कर्म ग्रंथ