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कर्म और उसके भेद-प्रभेद / 119
नहीं होता । उसी प्रकार कर्म बीज के भस्म हो जाने पर भवरूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता।
इस प्रकार बीज और वृक्ष की संतति की तरह जीव और कर्मों का परस्पर निमित्त-नैमेत्तिक संबंध है। जीव के अशुद्ध परिणामों के निमित्त से पुद्गल-वर्गणाएं कर्म रूप परिणत हो जाती हैं तथा पद्ल कर्मों के निमित्त से जीव के अशुद्ध परिणाम होते हैं। फिर भी जीव कर्म-रूप नहीं होता तथा कर्म जीव-रूप नहीं होता। दोनों के निमित्त से संसार चक्र चलता रहता है।
कैसे बंधते हैं कर्म? जैन दर्शनानुसार लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहां कर्म योग्य पुद्गल परमाणु न हो। जीव के मन, वचन और काय के निमित्त से अर्थात् जीव की मानसिक, वाचनिक
और कायिक प्रवृत्ति के कारण कर्म योग्य परमाणु चारों ओर से आकृष्ट हो जाते हैं तथा कषायों के कारण जीवात्मा से चिपक जाते हैं। इस प्रकार कर्म-बंध के दो ही कारण माने गए हैं—योग और कषाय। शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं तथा क्रोधादिक-विकार कषाय के अंतर्गत है। वैसे कषायों के अनेक भेद हो सकते हैं, किंतु स्थूल रूप से दो भेद किए गए हैं-'राग और द्वेष' । राग-द्वेष युक्त शारीरिक, वाचनिक
और मानसिक प्रवृत्ति ही कर्म-बंध का कारण है। वैसे तो सभी क्रियाएं कर्मोपार्जन का हेतु बनती हैं किंतु जो क्रियाएं कषाय-युक्त होती हैं उनसे होने वाला बंध बलवान होता है, जबकि कषायरहित क्रियाओं से होने वाला बंध निर्बल और अल्पाय होता है। इसे नष्ट करने में अल्प शक्ति एवं अल्प समय लगता है। इस प्रकार योग एवं कषाय कर्म बंध के प्रमुख कारण हैं।
जैन धर्म और सामाजिक न्याय जैन धर्म में सामाजिक वैषम्य की किसी रूप में भी स्वीकृति नहीं है। जैन संस्कृति सामाजिक न्याय मैत्री और समता पर बल देकर बंधुता की स्थापना करती है। भगवान महावीर ने जैन संस्कृति को पुनः स्थापना करते हुए इन सभी जीवन मूल्यों को समाज के लिए अनिवार्य माना है। मनुष्य के संस्कार संवर्धन के लिए उदात्त गुणों का ग्रहण जिस समाज में होगा, वह स्वयमेव सुसंस्कृत हो जाएगा।
प्रो. विजयेन्द्र स्नातक 'आस्था और चिंतन से
1. समय सार 86-87