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कर्म और उसके भेद-प्रभेद / 117
पाषाण में पाया जाता है परतु एक बार स्वर्ण बन जाने पर उसे किट्टिमा के साथ मिला पाना असभव है । उसी प्रकार जीव भी सदा ही मूलत कर्मबद्ध (सशरीरी) उपलब्ध होता है,परंतु एक बार कर्मों से सबध छूट जाने पर पुन इसका शरीर के साथ सबध हो पाना असभव है । जीव मूलत अमूर्तिक या कर्म रहित नही है, बल्कि कर्मों से सयुक्त् रहने के कारण वह अपने स्वभाव से च्युत उपलब्ध होता है। इस कारण वह मूलत अमूर्तिक न होकर, कथचित् मूर्तिक है । ऐसा स्वीकार कर लेने पर उसका मूर्त कर्मों के साथ बध हो जाना,विरोध को प्राप्त नही होता । हा,एक बार मुक्त हो जाने पर वह सर्वथा अमूर्तिक अवश्य हो जाता है, और तब कर्म के साथ उसके बंध होने का प्रश्न ही नही उठता।
कब से बंधा है कर्म? जैसे स्वर्ण-पाषाण को खदान से निकालने पर वह कालिमा और किट्टिमा रूप विकृति-युक्त होता है। उसे रासायनिक प्रयोगों से पृथक् कर शुद्ध किया जाता है। उसी तरह ससारी जीवो का कर्मों से अनादि-कालीन सबध है। साधना और तपश्चर्या के बल पर कर्मों को अलग कर आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है। जैन मान्यता के अनुसार ससार में रहने वाला प्रत्येक जीव कर्मों से बधा हुआ है। जीव कभी शुद्ध था फिर अशुद्ध हुआ हो, ऐसी बात नही है, क्योकि यदि वह शुद्ध था तो फिर उसके अशुद्ध होने का कोई कारण ही नही बनता। यदि फिर भी वह अशुद्ध होता है तब तो मुक्ति के उपाय की बात ही निरर्थक हो जाती है।
इसी बात का समाधान करते हुए जैनाचार्यों ने कहा है कि “जीव और कर्म का अनादि से सबध है इन कर्मों के कारण ही समार की नाना यानियो में भटकता हआ यह जीव सदा से दुखो का भार उठाता आ रहा है।" कर्म बध ओर ममार परिभ्रमण को स्पष्ट करते हए आचार्य कद-कद स्वामी ने अपने 'पचाम्तिकाय' मे कहा है कि
जो खलु समारन्थो जीवा तत्तो दुहोदि परिणामों परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदि मु गदि गदि मधिगदम्म देहो देहादो इदियाणि जायते तेहि दुविसयग्राहण तत्तो दु रागो व दोसोवा जादि जीवम्मेव भाव मसार चक्क वालम्मि
इदि जिणवरेहि भणिद अणादि णिहणों सणिहणों वा ॥2 मसार में जितने भी जीव हैं, उनमें गग द्वेष रूप परिणाम होते है। उन परिणामों मे कर्म बधते हैं। कर्मों से चार गतियों में जन्म लेना पडता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है तथा शरीर में इन्द्रिया होती हैं, इनसे विषयो का ग्रहण होता है तथा विषयों के ग्रहण से राग-द्वेष होते हैं। इस प्रकार मसाररूपी चक्र में भ्रमण करते हए जीव के भावों से कर्मों का बध तथा कर्म बध से जीव के भाव. मननि की अपेक्षा अनादि मे चला आ रहा है।
1 कर्म सिद्धात 38 2 प का 128-30