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कर्मबंध की प्रक्रिया (आस्रव बंध) : 111
(1) प्रकृति बंध 'प्रकृति' का अर्थ स्वभाव होता है ।' प्रत्येक पदार्थ का अपना स्वभाव होता है। जैसे नीम का स्वभाव कड़वापन है, गुड़ का स्वभाव मीठा है. वैसे ही प्रत्येक कर्मो का अपना-अपना स्वभाव है । ज्ञानावरणी कर्म की प्रकृति ज्ञान को आच्छादित करना है, दर्शनावरणी कर्म दर्शन को प्रकट होने नहीं देता । बंध के समय बंधने वाले कर्म-परमाणुओं में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार प्रकृति पढ़ जाती है । इसी का नाम 'प्रकृति बंध' है ।
(2) प्रदेश बंध बंधे हुए कर्म-परमाणुओं की संख्या को 'प्रदेश बंध' कहते हैं। अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप बंधने वाले कर्म परमाणुओं की कोई न कोई संख्या होती है, उस संख्या को ही 'प्रदेश बंध' कहते हैं।
(3) स्थिति बंध आस्रवित कर्म जब तक अपने स्वभाव रूप से टिके रहते हैं उस काल की मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं। सभी कर्मों की अपनी-अपनी स्थिति होती है। कुछ कर्म क्षण-भर टिकते हैं तथा कुछ कर्म हजारों वर्ष तक आत्मा के साथ चिपके रहते हैं। उनके इस टिके रहने की काल मर्यादा को ही 'स्थिति बंध' कहते हैं। जिस प्रकार गाय, भैंस, बकरी आदि के दूध में माधुर्य एक निश्चित कालावधि तक ही रहता है, उसके बाद वह विकृत हो जाता है। उसी प्रकार प्रत्येक कर्म का स्वभाव भी एक निश्चित काल तक ही रहता है । यह मर्यादा ही स्थिति बंध है जिसका निर्धारण जीव के भावों के अनुसार कर्म बंधते समय ही हो जाता है,
और कर्म तभी तक फल देते हैं जितनी कि उनकी स्थिति होती है। इसे Duration Period भी कह सकते हैं।
(4) अनुभाग बंध कर्मों की फलदान-शक्ति को 'अनुभाग बंध' कहते हैं। प्रत्येक कर्म की फलदान शक्ति अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप ही होती है। जैसे—बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध के स्वाद में तरतमता रहती है। उसी प्रकार प्रत्येक कर्मों की अपनी-अपनी तीव्र मंदादिक फलदान शक्ति रहती है। प्रकृति बंध सामान्य है। अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म आ तो जाते हैं, किंतु उनमें तरतमता अनुभाग बंध के कारण ही आती है। जैसे गन्ने का स्वभाव मीठा है पर वह कितना मीठा है? यह सब उसमें रहने वाली मिठास पर ही निर्भर है।
1 त वा 8/3/4 2 तवा 8/3/7 3त वा 8/3/5 4 त. वा 8/3/6