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कर्मबध की प्रक्रिया (आस्रव बंध), 109
योग-यह क्रम रखा गया है। यहा यह विशेष ध्यातव्य है कि पर्व-पर्व के कारणों के रहने पर उत्तरोत्तर कारण अनिवार्य रूप से रहते है। जैसे मिथ्यात्व की उपस्थिति में शेष चारो कारण भी रहेगे कितु अविरति रहने पर मिथ्यात्व रहे यह कोई नियम नहीं है। भिन्न-भिन्न अधिकरणों की अपेक्षा ही उक्त प्रत्यय बताये गये है।
बंध
कर्म रूप परिणत पुदगलों का जीवत्मा के साथ एक क्षेत्रावगल सबध हो जाना बंध है।' दो पदार्थों के मेल को बंध कहते हैं। यह संबंध धन और धनी की तरह का नहीं है, न ही गाय के गले में बंधने वाली रस्सी की तरह का, वरन् बंध का अर्थ जीव और कर्म पुद्गलों का मिलकर एकमेक हो जाने से है। आत्मा के प्रदेशों में कर्म प्रदेशों का दूध में जल की तरह एकमेक हो जाना ही बध कहलाता है। जिस प्रकार स्वर्ण और ताबे के संयोग से एक विजातीय अवस्था उत्पन्न हो जाती है, अथवा हाइड्रोजन और ऑक्सीजन रूप दो गैसों के सम्मिश्रण से जल रूप एक विजातीय पदार्थ की उत्पत्ति हो जाती है उसी प्रकार बंध पर्याय में जीव और पुद्गलो की एक विजातीय अवस्था उत्पन्न हो जाती है तो न तो शुद्ध जीव में पायी जाती है, न ही शुद्ध पुदगलों में जीव और पुदगल दोनों अपने-अपने गुणों से च्युत होकर एक नवीन अवस्था की रचना करते हैं ।
इसका अर्थ यह नहीं है कि वे सर्वथा अपने स्वभाव से च्युत हो जाते हैं तथा फिर उन्हें पथक किया ही नहीं जा सकता। उन्हें पृथक भी किया जा सकता है जैसे मिश्रित सोने और तांबे को गलाकर अथवा प्रयोग विशेष मे जल को पुनः हाइड्रोजन और ऑक्सीजन रूप में परिणत किया जा सकता है। उसी प्रकार कर्मबद्ध जीव भी अपने पुरुषार्थजन्य प्रयोग के बल से कर्मों से पृथक हो सकता है।
आस्त्रव-बंध संबंध जीव के मन, वचन और काय गत प्रवृत्ति के निमित्त में कार्मण वर्गणणाओं का कर्म रूप से परिणत होना 'आस्रव' है, तथा आस्रवित कर्म पुद्गलों का जीव के रागद्वेषादि विकारों के निमित्त से आत्मा के साथ एकाकार/एक रस हो जाना ही 'बंध' है। बंध, आस्रवपूर्वक ही होता है। इसीलिए आस्रव को बंध का हेतु कहते हैं।' आस्रव और बंध दोनों युगपत् होते हैं। उनमें कोई समय भेद नहीं है। आस्रव और बंध का यही संबंध है। सामान्यतया आस्रव के कारणों कोई बंध के कारण (कारण का कारण होने मे) कह देते हैं, किंतु बंध के
1 आसवेरावरण कर्मण अत्मनासयोग बन्ध, न भा हरि वृ 1/3 2 आपकर्मणोरन्योन्य प्रवेशानुप्रवेशात्मको बध., मर्वा मि 1/4, 11 3 आश्रवो बध हेतु भर्वान् । 4 त मू 8.2
-जैन दर्शन सार, प.44