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106 / जैन धर्म और दर्शन
दृष्टि से कर्मो के आगमन को आस्रव कहते है। इसका अर्थ यह नही है कि कर्म किसी भिन्न क्षेत्र से आते हों, अपितु हम जहाँ हैं, कर्म वही भरे पड़े हैं। योग का निमित्त पाते ही कर्म-वर्गणाए कर्म रूप से परिणत हो जाती है।' कर्म-वर्गणाओं का कर्म रूप से परिणत हो जाना ही आस्रव कहलाता है। कर्मो के आगमन का आशय सिर्फ इतना ही है।
मन, वचन और काय की प्रवृत्ति शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार की होती है। शुभ प्रवृत्ति को शुभ योग तथा अशुभ प्रवृत्ति को अशुभ योग कहते हैं। शुभ योग शुभास्त्रव का कारण है तथा अशुभ योग से अशुभ कर्मो का आस्रव होता है। विश्वक्षेम की भावना, सबका हित चितन दया, करुणा और प्रेम-पूर्ण भाव शुभ-मनो-योग है। प्रिय सम्भाषण, हितकारी वचन, कल्याणकारी उपदेश शुभ-वचन-योग' के उदाहरण है, तथा सेवा, परोपकार, दान एव देव पूजादि शुभ-काय-योग' के कार्य है। इनसे विपरीत प्रवृत्ति 'अशुभ-योग' कहलाती है।
आस्रव के भेद आस्रव के द्रव्यास्रव और भावास्रव रूप दो भेद भी है। जिन शुभाशुभ भावों से कार्माण वर्गणाए कर्म रूप परिणत होती हैं उसे 'भावास्रव' कहते है, तथा कर्म-वर्गणाओ का कर्म-रूप परिणत हो जाना 'द्रव्यास्रव है। दूसरे शब्दो मे, जिन भावों से कर्म आते हैं, वह भावास्रव है तथा कर्मों का आगमन द्रव्यास्रव है । जैसे—छिद्र से नाव मे जल प्रवेश कर जाता है, वैसे ही जीव के मन वचन, काय के छिद्र से ही कर्म-वर्गणाए प्रविष्ट होती हैं। छिद्र होना-भावास्तव का तथा कर्म-जल का प्रवेश करना द्रव्यास्त्रव का प्रतीक है।
कषायवान और निष्कषाय जीवो की अपेक्षा द्रव्य-आस्रव दो प्रकार का कहा गया है-1 साम्परायिक 2 ईर्यापथ।
1 साम्परायिक 'साम्पराय' का अर्थ 'कषाय' होता है। यह 'ससार' का पर्यायवाची है। क्रोधादिक विकारो के साथ होने वाले आस्रव को 'साम्परायिक-आस्रव' कहते हैं। यह
व आत्मा के साथ चिरकाल तक टिका रहता है । कषाय स्निग्धता का प्रतीक है। जैसे तेलसिक्त शरीर मे धूल चिपककर चिरकाल तक टिकी रहती है, वैसे ही कषाय सहित होने वाला यह आस्रव भी चिरकाल अवस्थायी रहता है।
2 ईर्यापथ . आस्रव का दूसरा भेद ईर्यापथ है। यह मार्गगामी है। अर्थात् आते ही ही चला जाता है, ठहरता नही। जिस प्रकार साफ-स्वच्छ दर्पण पर पड़ने वाली धूल उसमें चिपकती नही है, उसी प्रकार निष्कषाय जीवन-मुक्त महात्माओं के योग मात्र से होने वाला आस्रव 'ईर्यापथ' आस्रव कहलाता है । कषायो का अभाव हो जाने के कारण यह चिरकाल
1 त. वृत्रुत 6/2 2 शुभ पुण्यस्याशुभ पापस्य त सू6/3 3 त.सू 6/4 4 सर्वा सि 6/4 पृ246 5 त. वा6/4/7 पृ258