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100 / जैन धर्म और दर्शन
कुछ कष्ट होता है फिर भी अल्प परिश्रम मे ही अधिक फल की प्राप्ति होने लगती है। इस काल में प्राकृतिक आपदाएं नहीं आतीं। इसी काल में क्रमशः चौबीस तीर्थकर जन्म लेकर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। मनुष्यों में धार्मिक बुद्धि उपजती है,धर्माराधन कर वे मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। दुःख की अधिकता और सुख की अल्पता होने से यह काल दुःखमा-सुखमा कहलाता है।
5. दुःखमा यह पांचवां काल है। संप्रति यही काल है। इस काल में अधिक परिश्रम करना पड़ता है, आवश्यकताएं बढ़ जाती हैं, उपज कम होती है, प्राकृतिक आपदाएं
भोगी-विलासी होने लगता है। धर्म की हानि होने लगती है। तीर्थंकरादि महापुरुषों का जन्म नहीं होता, न ही विशिष्ट ऋद्धि-संपन्न मुनि, तपस्वी ही होते हैं। फिर भी कुछ न कुछ धर्म तो बना ही रहता है।
6. दुःखमा-दुःखमा इस काल में दुःख ही दुःख होता है। प्राकृतिक उपज समाप्त हो जाती है। प्रकृति विरुद्ध हो जाती है। अग्नि का भी अभाव हो जाता है। परिणामतः मनुष्यों की प्रवृत्ति अमानुषिक हो जाती है। सर्वत्र अराजकता फैल जाती है। धर्म-कर्म पूर्णतया विलुप्त हो जाते हैं तथा अंत में सब कुछ प्रलयाग्नि में भस्म हो जाता है।
कुछ समय पश्चात् पुनः उत्पत्ति प्रारंभ होती है। उस समय व्यक्ति निर्बल और असंस्कारित रहते हैं। दुःख की बहुलता बनी रहती है। धीरे-धीरे प्रकृति अनुकूल होने लगती है। विद्या आदि का विकास होने पर सुख होने लगता है तथा आगे चलकर धर्म भी प्रकट होने लगता है । इस प्रकार दुःख से सुख की ओर जाते हुए इस काल में प्राकृतिक सुविधाओं में वृद्धि होने लगती है तथा क्रमशः सुखमा-सुखमा काल पुनः प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार यह कालचक्र कभी सुख से दुःख की ओर तथा कभी दुःख से सुख की ओर निरंतर घूमता रहता है। इस काल-चक्र के व्यूह में फंसे समस्त जीव निरंतर काल के गाल में समाते रहते हैं। धर्म के आश्रय से ही इस काल-चक्र से ऊपर उठा जा सकता है।
पंचास्तिकाय पूर्वाक्त छह द्रव्यों में काल के अतिरिक्त शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। 'अस्ति'शब्द 'अस्तित्व' का वाची है; 'काय' का अर्थ शरीर होता है । जिन द्रव्यों में शरीर की तरह प्रदेशों की बहुलता होती है, उन्हें अस्तिकाय कहते हैं। समस्त आकाश अनंत प्रदेशी है । धर्म और अधर्म द्रव्य लोक-प्रमाण और असंख्यात प्रदेशी हैं । ये तीनों एक-एक ही हैं। जीवों की संख्या अनंत है। प्रत्येक जीव लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर असंख्यात प्रदेशी है। यद्यपि पदगल परमाण एक प्रदेशी हैं फिर भी यह अन्य पुद्गलाणुओं से संयुक्त होकर सदृश परिणमन भी कर लेता है । अतः यह संख्यात, असंख्यात् और अनंत प्रदेशी भी बन जाता है । इस दृष्टि से पुद्गल को भी अस्तिकाय कहते हैं। कालाणु असंख्य होते हुए भी एक-दूसरे से अबद्ध रहने के कारण एक
1. नित्यावस्थितान्यरूपाणि, त. सू.5 2. द्र.सं. 23 3. ट्र.सं. 24 4. द्र.सं. 25