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अजीव तत्व-पुद्गल द्रव्य/97
लोकाकाश लोक और आकाश इन दो शब्दों से मिलकर बना है। 'लोक' शब्द संस्कृत के 'लुक्' धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ होता है देखना । इसका अर्थ हुआ जहां तक जीवादिक पदार्थ देखे जाते हैं, वह लोक है। उससे बाहर के आकाश को अलोक कहते हैं। लोक और अलोक का यह विभाग किसी दीवार की तरह नहीं है जो आकाश में भेद करती हो अपितु पूर्ण आकाश अखंड है। जीवादि पदार्थों की उपस्थिति और अनुपस्थिति के कारण यह भेद हुआ है। जैन दर्शन के अनुसार लोकाकाश संपूर्ण आकाश के मध्य भाग में दोनों पैर फैलाकर कमर पर हाथ रखकर खड़े हुए मनुष्य के आकार का है। यह चौदह राजू ऊंचा और सात राजू चौड़ा है।
___ अधः, मध्य और ऊर्ध्व तीन विभागों में विभक्त यह लोक सब ओर से वायुदाब के दबाव से घिरा है। नीचे के पैर की आकति वाले) भाग में सात नरक हैं। कटिप्रदेश जहां हम सब अवस्थित हैं,उसे मर्त्यलोक या मध्यलोक कहते हैं। इससे ऊपर स्वर्ग है । लोक के अग्र भाग पर मोक्ष स्थान है जहां पहुंचकर मुक्त आत्माएं ठहर जाती हैं। गति का हेतु धर्म द्रव्य का अभाव होने के कारण इससे आगे नहीं बढ़ पातीं। (यह हम पहले पढ़ चुके है) वस्तुतः इसके विभाजन का कारण धर्म और अधर्म द्रव्य ही है। लोक का यह आकार धर्म और अधर्म द्रव्य के ही कारण है। जो धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य का आकार है, वही लोक का आकार है।
अन्य दर्शनों ने भी आकाश को स्वीकारा है,कितु उसके लोक और अलोक रूप भेद को नहीं मानते। इसी वजह से उनके यहां धर्म और अधर्म द्रव्य की भी मान्यता नहीं है। जैन दर्शन में इन्हें माना गया है, जो कि तर्कसंगत है तथा आधुनिक विज्ञान ने भी इसके अस्तित्व पर अपनी मुहर लगा दी है।
काल द्रव्य यह प्रत्येक पदार्थ में होने वाले परिवर्तन/परिणमन का हेतु है।' यही वह द्रव्य है,जिसके निमित्त से द्रव्य अपनी पुरानी अवस्था को छोड़कर प्रतिक्षण नया रूप धारण करते हैं । यह भी आकाश की तरह अमूर्त और निष्क्रिय है, किंतु उसकी तरह एक और व्यापक न होकर असंख्य है,जो पूरे आकाश के प्रदेशों पर रत्नों की राशि की तरह भरे पड़े हैं। आकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही कालाणु हैं। वर्तना इसका प्रमुख लक्षण है। पदार्थों में परिणमन यह बलात् नहीं कराता, बल्कि इसकी उपस्थिति में पदार्थ स्वयं अपना परिणमन करते हैं। यह तो कुम्हार के चाक के नीचे रहने वाली कील की तरह है जो स्वयं नहीं चलती,न ही चाक को संचालित करती है । फिर भी कील के अभाव में चाक घूम नहीं सकता। चाक के परिभ्रमण के लिए कील का आलंबन अनिवार्य है । काल द्रव्य की यही भूमिका है। परिणमनगत इस आलंबन को वर्तना कहते हैं। यह काल द्रव्य का मुख्य लक्षण है । इसे ही निश्चय काल कहते हैं । इसके अभाव में पदार्थों का
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