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प्रकाशकीय निवेदन पूर्ण पुरुष वीतराग भगवान् की वाणी त्रिकाल अबाधित और सर्वथा सत्य है । अनन्त भाव और दृष्टियों से परिपूर्ण विश्व का स्वरूप - जड़ चेतन का स्वरूप जो जैनागमों में है, अकाट्य और विचारकों द्वारा शास्वत समर्थित है और रहेगा। इतना सब होने पर भी हम लोग उसे संसार के समक्ष उपस्थित न कर मुमुक्षुओं एवं विचारकों के प्रति घोर अपराध कर रहे है। जैन धर्म किसी वर्ग विशेष की सम्पत्ति नही पर विश्वधर्म-आत्म धर्म है। इसमें
आत्मोत्थान की पराकाष्टा निर्वाण प्राप्ति का सहज और सुगम मार्ग निहित है। इसका प्रचार आज के युग में बड़ा ही आवश्यक और कल्याण कारी है। अधिकारी विद्वानों द्वारा यह भगीरथ प्रयत्न सर्वथा वाञ्छनीय है। हमने इस विषय के अपने विचार लिपिबद्ध करने के लिये अपने श्रद्धेय मित्र श्री शुभकरणसिंह जी बोथरा को कई बार प्रेरित किया और उन्होंने हमारे अनुरोध से यह निबन्ध लिख कर चार वर्ष पूर्व हमें भेज देने की कृपा की, जिसे आज विद्वानों के कर कमलों में रखते हमें परम हर्ष हो रहा है।
इस निबन्ध के लेखक श्री शुभकरणसिंह जी एक प्रतिभा सम्पन्न उच्च शिक्षा प्राप्त और योगनिष्ट विचारक हैं। उन्होंने अपने जीवन का बहुमूल्य भाग तत्वचिन्तन में व्यतीत किया है। ऐसे प्रभाव शाली व्यक्तित्व वाले विद्वान के विचारों से आशा है पाठक गण अवश्य प्रभावित होंगे। इसका प्राक्कथन श्री कैलाशचन्द्र जी जैन ने लिख भेजने की कृपा की है अतः हम दोनों विद्वानों के प्रति आत्मीयता व्यक्त करते हैं। उपाध्याय जी श्री सुखसागर जी महाराज के कलकत्ता पधारने पर ज्ञान खाते में एकत्र द्रव्य का सद्व्यय इस ग्रन्थ के प्रकाशन में किया जा रहा है इसकी आमदानी से भविष्य में जिनवाणी प्रचार में सहायक होगी। आशा है हमारे बन्धु सत्साहित्य के प्रचार और पठन पाठनादि में अब पश्चात्पाद नहीं रहेगा।
अगरचन्द नाहटा, भँवरलाल नाहटा