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'( ३४ ) भाव प्रवृत्तियों के अनुरूप भावावेश के समय " आयुष्य " का बंध करता है, केवल एक नवीन देह धारण करने के लिये । एक समय एक ही शरीर धारण करये योग्य " आयु" नाम की शक्ति एकत्रित की जा सकती है कभी एक से अधिक शरीर निमाण करने के लिये (भव धारण करने के लिये ) एक साथ " आयु " शक्ति का संचय जीव नहीं कर सकता ( स्थूल का स्थायित्व मूतम के सन्मुख इतना ही अल्पं एवं तुच्छ है-भाव कर्म जहाँ दीर्घ काल तक जीव की विकृति को टिकाये रखते हैं, वहाँ आयु आदि स्थूल द्रव्य कर्मों को स्थूल पौद्गलिक अपेक्षाकृत दृश्यमान स्कंधों की सहायता चाहिये, इन में आयुष्य सब से अधिक स्थल है अतः इसका मात्र एक भव स्थायित्व अत्यंत युक्ति पूर्ण है।)
आयु, जीव जड़ के अद्भुत संपर्क से अन्न एक तृतीय परिणाम है जिसका दोनों पर परस्पर प्रभाव पड़ता है । जीव को शरीर विशेष धारण करने के लिये, आयु शक्ति का संचय करना पड़ता है तो जड़ को स्कंध, विशेष (प्रत्येक ) में स्थित रखने के लिये “ आयु " की आवश्यकता होती है । काल विशेष से अधिक कोई, स्कंध तद रूप में स्थिर नहीं रह सकता-यह अटूट प्राकृतिक नियम है, अर्थात् प्रत्येक स्कंध का उत्कृष्ट कालमान निश्चित है। भले हो वह अपेक्षा विशेष में सुदीर्घ या अत्यल्प क्यों न हो अथवा संयोगानुसार समय की उत्कृष्ठ अवधि तक तदरूप में स्थिर न रहकर पहले ही भग्न क्यों न हो जाय-प्रकृति का नियम इससे बाधित नहीं होता। इसी तरह जोव " आयु शक्ति का संचय केवल एक शरीर, भव या देह धारण करने के लिये कर