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से मान लिया जाय तो प्रवाह के निरुद्ध हो जाने के कारण पदार्थ को जीवित रखन भी संदेहजनक हो जाता है। यदि निष्कारण स्थिति का कोई प्रमाण नहीं एवं अप्रमाणित सत्य को मान लेने से समस्त सत्यों का गला घुटता है। वैदिक धर्मों ने साकार रूप से इन तीन सत्यों को (स्थूल रूप से ) स्वीकार कर ही तो लिया और बाद में ब्रह्मा,विष्णु व महेशाकार में इन परम सत्यों को तत्त्व का सर्वोपरि माना। भारतीय संस्कृति ने इस चरम सत्य को प्रकट कर मानों अभेद्य तत्व का पटाक्षेप किया और समस्त मानव जाति का मुख आलोकित कर दिया।
महावीर आगे बढ़े. उन्होंने सूक्ष्म रूप से इस मून मन्त्र का प्रयोग कर द्रव्यों की संख्या निर्णय करने को ठानी । चेतन द्रव्य सर्व प्रधान सर्व विदित एव सर्व प्रथम है। चेतन एक नहीं हैं, अनेक हैं, एक जैसे अनेक हैं पर सब मिलकर एक (ही ) नहीं । कार्य, कारण व परिणाम भिन्न हैं, भावना व चेष्टा में भिन्न हैं, संयोगों के प्रभाव भिन्न हैं, रुचि व प्रवृत्ति भिन्न है, उत्पत्ति, स्थिति व व्यय भी भिन्न हैं तो एक क्योंकर माना जाय-चेतनों को । सब कुछ एक ही हो तो भिन्नत्व दिखाई देने का कोई कारण नहीं । सत्य का स्वरूप अप्राप्य है, अथवा अमेद्य है, अथवा यह सब एक वृहत् चेतन की माया है-ऐसा कह कर तो सत्य के मूल स्वरूप को टालने का प्रयत्न करना है। सामान्य बुद्धि के लिये ईश्वर चेतन ही समझने की वस्तु है, अनेक चेतन के तत्त्व को थोड़े से व्यक्ति हृदयङ्गम कर सकते हैं-ऐसा मानकर