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( १२ ) इस युग के प्रधान महानुभाव ने भी इन्हीं मंत्रों का संदेश दिया है। इस देश के लिये इन दो प्रवृत्तियों का अनुगमन जिस तरह से अनिवार्य है उसी तरह समस्त मानव जाति के विकास की कुञ्जी भी इन दो गुणों को धारण करने पर ही उपलब्ध हो सकती है यह · निस्संदेह है।
महावीर का व्यवहार के लिये तीसरा उत्तम उपदेश था "निरर्थक प्रवृत्तियों से अपने आपको मानव, बचाये”। भद्र जीवन के लिये आवश्यक' कत्तव्यों व ज्ञान विज्ञान कला कौशल आदि विकास मुखी चेष्टाओं के परे की सभी प्रवृत्तियां उन्होंने अस्वीकृत की । “निरुद्देश्य, समय व शक्ति का अपव्यय करने के समान कोई महापाप नहीं है । एवं उद्देश्य की सार्थकता होती है, ज्ञान की उपलब्धि में, सेवा में, दया में व जीवन को सौम्य बमाने में, निरर्थक किसी को दुख देना या अपर्ने मनोरञ्जन मात्र के लिये किसी को हानि पहुँचाना सभ्य को शोभा नहीं देते"। अपनी बुद्धि कौशल का उपयोग कर शक्तियों को प्राप्त करने के मार्ग में रुकावट नहीं खड़ी की गयी-इस विधान द्वारा, किंतु इस उपदेश द्वारा निरुदिष्ट पथ पर गमन करने की अवांछनीय धारा के प्रवाह को रोका गया। महावीर ने कहा कि उद्देश्य की उपयोगिता व सत्यता के लिये समतुलन (मेधा) की आवश्यकता है । प्रत्येक परिस्थिति, प्रसङ्ग या संथोग में व्यक्ति का कर्तव्य है कि विवेक का सहारा ले, उचित अनुचित का वर्गीकरण करे एवं तद संयोग में जो अपेक्षाकृत उचित हो व दूसरों के लिये हानिकारक न हो उसको