________________
जीववाद ।
७५
सत्य कैसे माना जाय ? क्योंकि शब्द यह आकाशका गुण है, शब्दका प्रत्यक्ष ज्ञान कानके द्वारा हो सकता है और आकाश तो किसी भी इंद्रियद्वारा प्रत्यक्ष नहीं हो सकता " गुण प्रत्यक्षे गुणी प्रत्यक्षः" के नियमको सर्वथा सत्य कैसे माना जाय ?
नास्तिकोंकी यह पूर्वोक्त दलील ही असत्य है क्योंकि शब्द यह आकाशका गुण ही नहीं है यह तो परमाणुमय होनेके कारण एक तरहका जड़ पुग्दल है । इस विषयमें हम आगे चलकर अजीव तत्वकी चर्चा करते वक्त ब्यौरवार लिखेंगे । कदाचित यह कहा जाय कि आस्तिकोका बतलाया हुआ "गुण प्रत्यक्षे गुणी प्रत्यक्षः" का नियम कदाचित् सत्य हो तथापि हम नास्तिक लोग तो यों कहते हैं कि जिस प्रकार रूप वगैरह गुण घटमें दीख पड़नेके कारण उसका आधार घट माना जाता है उसी प्रकार ज्ञान वगैरह गुण शरीरमें ही विदित होनेके कारण उन गुणोंका आधार भी शरीर है ऐसा मानना चाहिये और यही मान्यता युक्तियुक्त है। तथा ऐसी मान्यता माननेसे आस्तिकोंके वतलाये हुये "गुण प्रत्यक्षे गुणी प्रत्यक्षः" नियमका भी वरावर रक्षण किया जा सकता है।
यद्यपि नास्तिकोंका यह कथन सुननेमें तो सुन्दर ही देख पड़ता है परन्तु गहरा विचार करनेसे इसमेका एक भी अक्षर सत्य मालूम नहीं देता। सबसे पहली बात तो यह है कि ज्ञान वगैरह गुणोंके साथ शरीरका किसी प्रकारका सम्बन्ध ही नहीं घट सकता। देखिये शरीर तो रूपी आकारवाला है और इंद्रियों द्वारा जाना जाय ऐसा है और शान वगैरह गुण अरूपी हैं, याने आकार रहित हैं, एवं किसी भी इंद्रियद्वारा जाने नहीं जा सकते । जहाँपर ज्ञान वगैरह गुण और शरीरमें इतना बड़ा विरोध हो वहाँपर शान वगैरह शरीरके गुण किस तरह हो सकते हैं ? वास्तवमें ज्ञानादि गुण शरीरके नहीं हो सकते, उनका गुणी याने उन गुणों का आधार उन्हींके समान रूपी-आकार रहित और जहाँ इंद्रियाँ भी न पहुँच सके ऐसा होना चाहिये और उस प्रकारका एक आत्मा ही है। इस लिए पाल्माको ही मानना यह युक्ति