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जैन दर्शन
वह भी होना चाहिये और जहाँ शरीर न हो वहाँ न होना चाहियो परन्तु ऐसा तो कहीं भी देखनेलें नहीं आता। देखिए ! आपको स्पष्ट ही मालूम देगा कि जो मनुष्य मदिरा पीकर मत्त बने हुये हैं, मच्छित बन गये हैं और निद्रामें पड़े हुये हैं उन्होंके शरीरमें किसी खास प्रकारका चैतन्य मालूम नहीं देता। यदि शरीर
और चैतन्यका ही कार्यकारण सम्बन्ध होता तो उन शरीरामें भी लेखकके समान चैतन्य क्यों न मालूम दे ? और जो शरीर दुर्बल हैं उनमें चैतन्यका प्रकार देख पड़ता है, एवं जो शरीर पुष्ट और मोटे ताजे हैं उनमें चैतन्यका अपकर्ष देख पड़ता है, यह भी किस तरह हो सके ? अतः ऐसे अनेक उदाहरणांसे लावित हो सकता है कि शरीर और चैतन्यमें किसी प्रकारका सम्वन्ध नहीं एवं कार्य कारण सम्बन्ध भी नहीं है। किसी एक तत्वज्ञानीने कहा है कि
परमबुद्धि रूप देहमें स्थूल देह मति अल्प। हो शरीर यदि अात्मा घटै न यह संकल्प। जड़ चेतनका भिन्न है केवल प्रगट स्वभाव ।
एकीपन पाये नहीं तीन काल द्वयभाव । इस परसे यह निश्चित होता है कि चैतन्य शरीरसे या-शरीरमें. नहीं बनता। चैतन्य शरीरसे बनता है या शरीरमें बनता है इस . वातको साबित करनेके लिये कोई प्रमाण भी नहीं मिलता। यदि कदाचित् इल वातको निश्चित करनेके लिये प्रत्यक्ष प्रमाणको आगे रक्खा जाय तो यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि चैतन्य इंद्रियोंसे जाना जासके ऐसी कोई वस्तु नहीं है और प्रत्यक्ष प्रमाण तो अपनी क्रिया इंद्रियों द्वारा ही करता है, इस लिये चैतः . न्यके साथ सम्वन्ध रखनेवाले विषयमें प्रत्यक्ष प्रमाण काम नहीं आ सकता । इस विषयको निश्चित करने के लिये अनुमान प्रमाण तो सर्वथा ही असमर्थ है, क्योकि आत्माको न माननेवाले नास्तिक लोक अनुमानको प्रमाणतया स्वीकृत ही नहीं करते। . यदि यों कहा जाय कि जिस तरहले दारू चनानेकी वस्तुयें एक साथ मिलनसे उनमें मादकता पैदा होती है उसी प्रकार जब ये