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जैन दर्शन प्रमाण दलील या अटकल के द्वारा आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती अतः सर्वथा न मालूम पड़नेवाला आत्मा किस तरह माना जाय?
इस तरह ये आत्माको न माननेवाले नास्तिकोंकी युक्ति और प्रमाण कहे हैं । अव यात्माको माननेवाले प्रास्तिक पूर्वोक्त युक्तियोका खण्डन इस प्रकार करते हैं
उपरोक्त उल्लेख में आत्माका सर्वथा निषेध करते हुये यह मालूम किया है कि जगतमें आत्मा यह कोई चीज ही नहीं है, जो कुछ यह देखने में आता है वह सब पंचभूतोंका ही खेल है। यह दीखता हुआ शरीररुप पुतला पाँच सूतोंसे बना हुआ है और चैतन्य भी इसीसे बना है इत्यादि।
ये सब बातें ठीक नहीं हैं, क्योंकि प्रात्माकी लिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही हो सकती है, जैसे कि मैं सुखका अनुभव करता हूँ इस तरहका ज्ञान प्राणीमानको होता है और इसी ज्ञानद्वारा
आत्माकी प्रतीति हो सकती है। यदि यों कहा जाय कि इस प्रकारका खयाल शरीरको ही होता है अतः इससे आत्मा की प्रतीति किस तरह हो सकती है, तो हम कहते हैं कि वह खयाल शरीरको नहीं होता, क्योंकि उस खयालमें स्पष्टतया ही आन्तरिकता मालुम देती है । जिस वक्त समस्त इन्द्रियाँ अपनी अपनी प्रवृत्तिसे विराम प्राप्त कर लेती हैं और शरीर अचेष्ट हो कर पड़ा रहता है उस वक्त भी, मैं सुखी हूँ, इस प्रकारका ख्याल रहा करता है इस लिये यह खयाल शरीरको होता है यह वात सम्भवित ही नहीं हो सकती। अतः यह एक ही खयाल आत्माका प्रत्यक्ष भान कराने में काफी है। अर्थात् शरीर और इन्द्रियों की अचेष्ट दशामें भी मैं सुखका अनुभव करता हूँ यह भाव जिसमें पैदा होता है वस वही प्रात्मा है और मैं सुखका अनुभव करता हूँ ऐसा खयाल प्राणीमात्रको होनेसे वह आत्मा सवको प्रत्यक्ष है ऐसा कहने में किसी भी तरहका दोष नहीं आता । इस लिये शरीरसे भिन्न और में सुखी हूँ इस तरहके अनुभवका आधार कोई आत्मा नामक शानवान् पदार्थ भी स्वीकारना चाहिये ।