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.जीववाद
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शरीरके साथ जिस चैतन्यका सम्बन्ध है उस चैतन्यको शरीरने ही बनाया है अतः इस चैतन्यके द्वारा भी जीवकी सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि चैतन्य शरीर हो तव ही (शरीरमें) मालूम होता है और शरीर न हो तब मालूम नहीं होता, इससे उसका विशेष सम्बन्ध शरीरके ही साथ है यह स्पष्ट ही मालूम होता है,
और इसीसे इस चैतन्यको शरीरने बनाया है यह बात भी सिद्ध होती है। यदि यह कहा जाय कि शरीर और चैतन्यका ही सम्बन्ध होता है तो मुर्देके शरीरमें भी चैतन्य क्यों नहीं मालूम होता? इलका उत्तर यह है कि मुर्देके शरीरमें पंचभूत पूर्ण नहीं हैं। उसमें वायु और तेज न होनेसे चैतन्य न मालम दे तो इसमें कोई क्षति नहीं, हम ऐसा भी नहीं मानते हैं कि शरीरके खोके मात्रमें चैतन्य अवश्य ही हो, यदि हम ऐसा माने तो चित्रित घोडेमें भी चैतन्य आना चाहिये। हमारी मान्यता यह है कि अमुक अमुक भूतोंका संयोग ही शरीर है और वही शरीर अपने शरीरको वनाता है। इस लिये मुर्देके शरीरका उदाहरण देनेसे हमारी दलील सत्य नहीं ठहर सकती। इससे यह साबित हो सकता है कि चैतन्य यह शरीरका ही धर्म है और शरीर ही उसे बनाता है, अतः मैं जानता हूँ, इत्यादिकी बुद्धि शरीरमें ही घट सकती है। इससे किसी जुदे आत्माकी कल्पना करना यह युक्तियुक्त नहीं। अर्थात्
आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाणसे जाना नहीं जा सकता इस लिये उसे अविद्यमान ही मानना युक्तियुक्त है।
अनुमान प्रमाण भी आत्माके अभावको ही सिद्ध करता है जैसे कि श्रात्मा नहीं है, क्योंकि वह सर्वथा नजर ही नहीं आता। जो वस्तु किसी भी प्रकारसे विलकुल न देखी जाती हो उसका अस्तित्व भी नहीं हो सकता और जो वस्तु देखने में आती है उसका तो नजरसे दीपते हुये धड़ेके समान-अवश्य अस्तित्व होता है। अर्थात् आत्मा दृष्टिसे न दीखनेके कारण उसके अस्तित्वको मानना यह उचित नहीं जान पड़ता । यदि यों कहा जाय कि परमाणुओके अस्तित्वको सब ही मानते हैं और वे दृष्टिसे तो दीखते ही नहीं इससे अस्तित्ववाली वस्तु दृष्टिसे दीखनी ही