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सर्वज्ञवाद
तरह मान सकेंगे ? महाशयजी ! यदि आप इस वातपर गहरा विचार करेंगे तो आपको मालूम होगा कि अनंत वीर्यवान् कोई अपने हाथ पैर, मुख, कान, जीभ, नाक, दांत, होठ, और आंख वगैरह साधनोको फेंक नहीं देता-काट नहीं डालता एवं इन साधनोंके रहनेसे उसकी अनंतवीर्यता में भी किसी तरहकी क्षति नहीं पहुँचती । उसी प्रकार यदि केवल ज्ञानी शरीर टिका - रखनेके साधन आहारको ग्रहण करे तो उसमें उसकी अनंतवीर्यताको जरा भी श्रांच नहीं सकती । इस लिये जिस तरह श्राप उसे देव छंदमें विश्रांति दिलाते तथा उसकी गमनागमन क्रियाको और बैठनेकी क्रियाको स्वीकृत करते हैं उसी प्रकार किसी तरहका विरोध मालूम न देनेसे उसके आहारकी क्रिया भी स्वीकृत करनी चाहिये, अर्थात् श्राप तो श्रानन्दके साथ भोजन करें और आपके पूज्यको भूखा रहना मानो, यह बात किसी भी तरह युक्तियुक्त मालूम नहीं देती । तथा आप यह भी न समझना कि बलवान् वीर्यवालेको कम भूख होती है, क्यों कि ऐसा कोई नियम नहीं है।
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जिस शास्त्रको हम और श्राप समान विधिसे मानते हैं उसमें भी केवल ज्ञानीको भोजन ग्रहण करनेका उल्लेख आता है । देखिये तत्वार्थसूत्रके नववें अध्ययन में ' एकादश जिने ' ( ११ ) इस सूत्र द्वारा विदित किया है कि केवल ज्ञानीको ग्यारह परिषह होते हैं, जिसमें पहला भूखका, दूसरा प्यासका एवं क्रमसह ठंडीका, तापका, डांसका, मच्छरका, चर्याका, संसारका, वधका, रोगका और तृण स्पर्शका | क्योंकि केवल ज्ञानीको इन परिषहोंके कारणभूत वेदनीय कर्मका उदय होनेसे इन परिपहोंका सम्बन्ध है । इस सूत्र के द्वारा भी यह सिद्ध हो सकता है कि केवलीको भूख भी लगती है । इस लिये इस परसे यह स्पष्टतया जाना जा सकता है कि केवलीको भूख लगनेके कारण पीड़ा तो होती ही है परन्तु वह अनंतवीर्यवान् होनके कारण हमारे समान पीड़ित नहीं होता एवं विल भी नहीं होता । उसे अय कोई भी कार्य चक्की न रहनेसे बिना किसी कारण वह भूखको सहन नहीं करता । भूखको सहन करना यह एक प्रकारका तप है परन्तु केवलज्ञान होने बाद