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सर्वज्ञवाद
हुआ करती है और अन्त में उसकी पूर्ण प्रकर्षता आकाशमें मालूम होती है, इसी प्रकार ज्ञान गुणमें भी तरतमभाव मालूम पड़ता है और वह तरतमता कहीं न कहीं पर पूर्ण प्रकर्पताको प्राप्त होनी हो चाहिये । जहाँ पर याने जिसमें वह ज्ञान गुणका तरतमभाव पूर्णा प्रकर्षताको प्राप्त करता है । वस उसे ही सर्वज्ञ कहते हैं । अब आप फरमाइये कि इस प्रकारकी निर्दोष दलील द्वारा सर्वज्ञको सावित करनेमें क्या बाध पाता है ।
मिनि- हमे आपका यह भी अनुमान टीक नहीं लगता। आपके इस कथनमें जो वाध आता है सो ध्यान देकर सुनिये। जब चुल्हे पर पानी गरम करनेके लिये रखते हैं तव गरम होते हुये उस पानीमें भी गरमीकी तरतमता होती है और आपके कथन किये मुजव यदि वह गरमीकी तरतमता कभी न कभी पूर्ण प्रकर्षताको प्राप्त होती हो तो कुछ समय बाद वह पानी ही अग्निरूप होना चाहिये । परन्तु ऐसा होता तो आज तक किसीने कभी देखा। इस लिये श्रापका बतलाया हुआ तरतमताको उसके प्रकर्पतक पहुँचनेका नियम यथार्थ चरितार्थ नहीं होता, अतः ऐसे नियमोसे सर्वज्ञकी सिद्धि कभी नहीं हो सकती।
जैन-महाशयजी ! ज्ञात होता है कि आप हमारा आशय नहीं समझ सके, हमारा कथन यह है कि जिस चीजमें जिस वस्तुमें जो सहज-स्वभाव सिद्ध गुण होता है और उसमें यदि तरतमता मालूम होती हो तो वह कभी न कभी अवश्य ही पूर्ण प्रकर्षताको प्राप्त होगी। आपने जो गरम पानीका उदाहरण देकर हमारे निय. मको असत्य ठहरानेका प्रयत्न किया है तो व्यर्थ है । क्योंकि पानीमें जो उष्णताका गुण है वह कोई उसका याने पानीका स्वाभाविक गुण नहीं है, परन्तु उसमें वह अग्निके सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ है । इस लिये हमारे इस नियमको खंडन करनेमें आपके उदाहरणको जरा भी स्थान नहीं मिल सकता, अतः हम इस एक ही नियमके द्वारा सर्वज्ञकी सिद्धि करते हैं और यह विदित करते हैं कि ज्ञानगुण यह आत्माका स्वाभाविक गुण है। वह गुण उसमें तरतमताको प्राप्त करता हुआ क्रमशः पूर्ण प्रक