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________________ जैन दर्शन चक्षुओंसे देख नहीं सकते तथापि लेखनी वगैरह के समान इन तमाम वस्तुओंकी रचना एवं सूक्ष्मता परसे ही इनके बनाने वालेका अस्तित्व सिद्ध हो सकता है । संसारमें जो वस्तुवें आकारवाली बनती हैं, बनी हुई हैं और जो बननेवाली हैं घे तमाम किसी बनानेवालेके सिवाय कदापि बन ही नहीं सकती, यह बात सर्व साधारण मनुष्योंकी समझमें आवे ऐसी सरन और प्रत्यक्ष जैसी है। इस प्रकारके एक सत्य सिद्धान्त द्वारा पृथ्वी पानी वगैरहकाभी कोई न कोई वनानेवाला होना ही चाहिये। कोई सामान्य मनुष्य या देव इस प्रकारकी प्रवृत्ति करे यह तो संभवित ही नहीं, परन्तु जिसमें पूर्णतया ईश्वरत्व (ऐश्वर्य) समस्त संसारका और संसारके कार्य कारणोंका जानपन, महान् इच्छाशक्ति और सब जगह पहुंच सके इस प्रकारका महान् प्रयत्नपुरुषार्थ हो वही सृष्टिके तमाम पदार्थोको निर्माण कर सकता है और वही एक सवको जाननेवाला, सवका संचालक, सवका पालक और सव जगह पहुँच कर सर्व कार्य करनेवाला ईश्वरपद पर सुशोभित हो सकता है। इस प्रकारका निर्माता और पालक पुरुष सिर्फ एकही है और वह नित्य है। अर्थात् विकार रहित है, तथा सर्व जाननेवाला, (सर्वज्ञ) और सब जगह रहनेवाला-सर्व व्यापक भी वह है। ऊपर कथन किये मुजव अर्थात् वनानेवालेके सिवाय एक भी वस्तु निर्माण नहीं हो सकती इस निर्वाध सिद्धान्तके अनुसार हम जिस प्रकार अपनी आंखोसे नहीं देखे हुये किसी भी एक कर्त्ताको फक्त उसके किये हुये कार्य परसे ही जान सकते हैं उसी तरह इस जगत कर्ताको भी सर्वज्ञ सर्वव्यापक, नित्य-विकार रहित और एक सिद्ध कर सकते हैं, उसकी युक्ति इस प्रकार समझिये। __ कोई भी कार्य करनेवाला मनुष्य जितने कार्यका एवं उसके कारणोंका ज्ञान धारण करता होगा उतना ही वह कर सकता है। जिस कार्यका ज्ञान ही न हो वह कार्य वन ही नहीं सकता। जो जितने कार्य करता है उन सवको भली प्रकार जाननेवाला तो वह
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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