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जैन दर्शन
सामान्यको सत्ताके सम्बन्धवाला माना जाता है और उसे अव यव रहित भी कहा जाता है यह भी विरोध ही है।
छठी बात यह है कि समवायको नित्य और एक स्वभाववाला माना जाता है और उसका सम्बन्ध पदार्थमानके साथ मंजूर किया जाता है परन्तु यह मंजूरी तव ही उचित गिनी जा सकती है जब समवायके अनेक स्वभाव हो । यदि समवायके अनेक स्वभावोलो न मानकर उसका सल्वन्ध सलस्त पदाथाके साथ मंजूर किया जाय तो इसमें परस्पर विरुद्धता लिवाय और कुछ नहीं जान पड़ता। • लातवीं बात यह है कि वे पदार्थको ज्ञानमें लहकारी मानते हैं, अर्थ सहकारित्व सिवाय प्रमाणता पूर्णरूप नहीं मानते और योगियोंका ज्ञान, जिसमें मालित होते हुए पदार्थ विद्यमान नहीं तब फिर सहकारी ही किसका हो, इसे प्रमाणल्प मानते हैं परन्तु यह भी एक विरुद्धता ही है। . । आठवीं बात यह है कि वे स्मरणको प्रमाणरूप नहीं मानते, क्योंकि उसमें कुछ नवीन सालम नहीं होता, वह स्मरण मात्र उतना ही मालूम कराता है ऐसा मानकर धारावाही ज्ञान [ राम, राम, राम, राम, राम, इस प्रकारका ज्ञान ] को प्रमाणरूप कैले माना जाय? क्योंकि कुछ नबा तो उसमें भी मालूम नहीं होता । एक समान स्थिति होनेपर भी एकत प्रमाण और एकको अप्रमाण माना जाय तो परस्पर विरोधताके सिवाय और क्या हाथ लग सकता है? कदाचिन यो मान लिया जाय कि स्मरण शानमें किसी भी पदार्थको साक्षात्कारणता नहीं है अतः वह अप्रमाण रूप है और धारावाही ज्ञानमें पदार्थती लाक्षात्कारणता विद्यमान हैअतएव उसे प्रमाणरूप माना जाता है। इस बातका उत्तर इस प्रकार । है-कितनेएक अनुमानोंमें भी अतीत और पदार्थ अनागत कारणरूप होनेले लाक्षात् रीतिसे पदार्थ कारणरूप नहीं होते तथापि जैसे उन्हें प्रमाणरूप माना जाता है-वैसे ही स्मरण ज्ञानको भी प्रमाण मानना चाहिये। ऐसा होनेपर भी यदि इस बातको टाल दिया जाय तो वह विरोध ही गिना जा सकता है। देखिये इस निम्न