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जैन दर्शन
यह एक हास्यास्पद बात है । स्याद्वादको याने अनेकान्त मार्गको माना जाय तो यह भी एक गुण है- अवयव और अवयवी इन दोनोंमें यदि केवल भेद ही मानने में थावे वा अभेद ही मान लिया जाय तो इन दोनोंका सम्बन्ध ही नहीं घट. सकता । परन्तु यदि किसी अपेक्षासे भेद और किसी अपेक्षाले अभेद माना जाय तव ही इन दोनोंका सम्बन्ध यथार्थ घट सकता है । इस तरह सम्वन्धको घटानेकी रीत स्याद्वादके मार्गसे ही साधी जा सकती है । अतः उसका विरोध करना, यह अनुचित और अयुक्त है । नैयायिक इन दोनोंमें एकान्त भेद मानते हैं । हम उन्हें पूछते हैं कि - अवयव, श्रवयवीमें किस तरह रहता है ? क्या वह एक भागले रहता है, या समस्ततया रहता है ? यदि एक भागसे -रहता है, यो कहा जाय तो यह अनुचित है। क्योंकि नैयायिकोके मतमे श्रवयवीको निर्वयव माना गया है। अतः वह उसमें एक भागसे रहता है, ऐसा भाग कैसे किया जा सकता है ? यदि नैच्यायिक -लोग अवयवीको अवयववाला माननेकी हिम्मत करें और श्रवयव तथा श्रवयव के बीच प्रभेद भी स्वीकार कर लें तो अनेकान्तवादको 'स्वीकारने जैसा होता है । क्योंकि इस तरह एक निरंश - अंश 'रहित अवयवी के अनेक श्रवयव हो जाते हैं । यदि अवयव और - श्रवयवीमें भेद माना जाय तो श्रवयवमेिं अवयव एक भागले रहता है या समस्ततया रहता है ? ऐसा प्रश्न फिरसे उपस्थित :होगा और ऐसे पूर्वोक्त जैसे अनेक प्रश्न हुआ करेंगे, जिनका कभी -पार ही नावेगा अर्थात् अनवस्था दोष उपस्थित होगा । इस भे'दके सिद्धान्तमें ही यदि यो मान लिया जाय कि अवयवी में श्रवयव · संपूर्णतया रहते हैं, तो यह भी अनुचित ही है । क्योंकि ऐसा मानने से अनेक अवयवकेि होनेका प्रसंग श्रायगा। एक ही अवयवीमें जितने अवयव उतने ही श्रवयवी हो जाते हैं । इस तरह श्रवयव और श्रवयव में भेद माननेमें यथार्थ घटना नहीं होती । श्रव यदि उन दोनोंमें अभेद माना जाय तो अवयव अथवा श्रवयवी इन 'दोनोंमेंसे एक ही रह सकता है और यह भी एक बड़ा दूषण है। 'अतः अवयव और अवयवीके पारस्परिक सम्बन्धको घटानेके