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जैन दर्शन
जा सकता है ? क्योंकि ज्ञानका ग्राह्य और ग्राहकके श्राकारसे रहितत्व कदापि अनुभवित नहीं होता। परन्तु ज्ञानकी संवेदनरुपताका अनुभव हरएकको होता है। अतः ज्ञान और अनुभूतत्व और अननुभूतत्व ये दो विरुद्ध धर्म रहे हुए हैं ऐसा चौद्धोंको मानना पड़ता है तथा वे खुद ही ज्ञानको विकल्परूप और विकल्प 'रहित ऐसे दोप्रकारसे मानते हैं। इसलिये ऐसी मान्यतावाला अनेकान्तवादका सामना कैसे कर सके ? पदार्थके आकारोंको धारण करता हुआ और एक ही साथ अनेकान्त अर्थों का प्रकाश करता 'हुश्रा इस तरहका चित्रविचित्र ज्ञान स्याद्वादमार्गका सामना कदापि नहीं कर सकता। इस तरह अपने २ माने हुये पदार्थमें "अनेक विरुद्ध धर्माको माननेवाले बौद्ध लोक स्याद्वादका-अनेकान्त मार्गका-विरोध कैसे कर सकते हैं ? .. नैय्यायिक और वैशेषिक लोग जिल रीतिसे स्याद्वादका स्वी. कार करते हैं वह रीत इस प्रकार है--वे ऐसा मानते हैं कि एक धूप ज्ञान किसी अपेक्षासें प्रत्यक्ष प्रमाणका फल है और किसी 'अपेक्षाले अनुमान प्रमाण है। इस तरह एक ही ज्ञानमें भिन्नं २ 'अपेक्षासे फलत्व और प्रमाणत्व घट सकते हैं तो इस हकीकतको माननेवाला वादी अनेकान्तमार्गका निषेध कैसे कर सकता है? वे एक ही पदार्थका रूप विचित्र आकारवाला स्वीकारते हैं और उसमें विरोध नहीं मानते, यह भी अनेकान्तमार्ग की ही मान्यता है। तथा एक धूपवाली करबीके एक भागमें ऊष्णस्पर्श और दूसरे भागमे शीतस्पर्श रहा हुआ है। इस तरह एक ही अवयवी में दो विरुद्ध स्पर्श रहते हैं, यह भी अनेकान्तवाद ही है। तथा वे-नैय्यायिक और वैशेषिक ही ऐसा कहते हैं कि एक ही पदार्थमें चलता और चलता, रंगता और अरंगता, आवृतत्व और 'अनावृतत्व, वगैरह अनेक धर्म अपेक्षाओसे घट सकते हैं, तव 'फिर ऐसा कहनेवाला स्याद्वादका विरोध कैसे कर सकता है ? तथा नित्य ऐले ईश्वर में सर्जनवृत्ति, संहार करनेकी वृत्ति, रजोगुण. तमोगुण, पृथ्वी, पानी वगैरह रूपमें अष्ट मूर्तित्व और सात्विक स्वभाव, वे सब ही परस्पर विरुद्ध हैं। तथापि उन्होनें उन सबको